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समझ लेते हैं। इस प्रकार अनेक लोकोपकारी सिद्धियों के स्वामी तीर्थंकर होते हैं जबकि दूसरे मुक्त होने वाले आत्मा ऐसे नहीं होते । अर्थात् न तो वे तीर्थंकर जैसे महान् धर्मप्रचारक हो होते हैं, और न केवल इतनी अलौकिक योग-सिद्धियों के स्वामी ही साधारण मुक्त जीव अपना अन्तिम विकास लक्ष्य अवश्य प्राप्त कर लेते हैं, परन्तु जनता पर अपना चिरस्थायी एवं अक्षुण्ण आध्यात्मिक प्रभुत्व नही जमा पाते । यही एक विशेषता है, जो तीर्थंकर और अन्य मुक्त आत्माओं में भेद करती है।
प्रस्तुत विषय के साथ लगती हुई यह बात भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि यह भेद, मात्र जीवन्मुक्त दशा में अर्थात् देहधारी अवस्था में ही है। मोक्ष प्राप्ति के बाद कोई भी भेद-भाव नहीं रहता । वहाँ तीर्थंकर और अन्य मुक्त आत्मा, सभी एक ही स्वरुप में रहते हैं। चूँकि जब तक जीवात्मा जीवन्मुक्त दशा में रहता है, तब तक तो प्रारब्ध - कर्म का भोग बाकी रहता है, अतः उसके कारण जीवन में भेद रहता है । परन्तु देह - मुक्त दशा होने पर मोक्ष में तो कोई भी कर्म अवशिष्ट नहीं रहता । फलतः कर्म जन्य भेद-भाव भी नहीं रहता ।
जैनत्व की झांकी (46) Jain Education International
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