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तीर्थंकरों व अन्य मुक्तात्माओं में अन्तर
अब एक और गम्भीर प्रश्न है, जो प्रायः हमारे सामने आया करता है । कुछ लोग कहते हैं-"जैन अपने चौबीस तीर्थकरों का ही मुक्त होना मानते हैं, और कोई इनके यहाँ मुक्त नही होते ।" यह बिल्कुल ही भ्रान्त धारणा है। इसमें सत्य का कुछ भी अंश नहीं है।
तीर्थंकरों के अतिरिक्त अन्य आत्माएँ भी मुक्त होती हैं। जैनधर्म किसी एक व्यक्ति, जाति या समाज के अधिकार में ही मुक्ति का ठेका नहीं रखता। उसको उदार दृष्टि में तो हर कोई मनुष्य, चाहे वह किसी भी देश, जाति, समाज या धर्म का हो, जो अपने आपको बुराइयों से बचाता है, आत्मा को अहिंसा, क्षमा, सत्य, शील आदि सद्गुणों से पवित्र बनाता है, वह अनन्त ज्ञान का प्रकाश प्राप्त करके मुक्त हो सकता है।
तीर्थंकरों की और अन्य मुक्त होने वाली महान् आत्माओं की आन्तरिक शक्तियों में कोई भेद नहीं है। केवल ज्ञान, केवल - दर्शन आदि आत्मिक शक्तियाँ सभी मुक्त होने वालों में समान होती है। जो कुछ भेद हैं, वह धर्म - प्रचार की मौलिक दृष्टि का और अन्य योगसम्बन्धी अद्भुत शक्तियों का है। तीर्थंकर महान् धर्म-प्रचारक होते हैं, वे अपने अद्वितीय तेजोबल से अज्ञान एवं अन्धविश्वासों का अन्धकार छिन्न- छिन्न कर देते हैं, और एक प्रकार से जीर्ण-शीर्ण, सड़े-गले मानव - संसार का कायाकल्प कर डालते हैं। उनकी योग - सम्बन्धी शक्तियाँ अर्थात् सिद्धियाँ भी बड़ी ही अद्भुत होती हैं। उनका शरीर पूर्ण स्वस्थ एवं निर्मल रहता है, मुख के श्वास- उच्छ्वास सुगन्धित होते हैं। वैरानुबद्ध विरोधी प्राणी भी उपदेश श्रवण कर शान्त हो जाते हैं। उनकी उपस्थिति में दुर्भिक्ष एवं अतिवृष्टि आदि उपद्रव नहीं होते, महामारी भी नहीं होती। उनके प्रभाव से रोग-ग्रस्त प्राणियों के रोग भी दूर हो जाते हैं। उनकी भाषा में वह चमत्कार होता है कि क्या आर्य और क्या अनार्य मनुष्य, क्या पशु-पक्षी सभी दिव्यवाणी का भावार्थ
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जैन तीर्थकर (45)
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