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देते हैं, और तीर्थकरों को अवतार कह देते हैं, परन्तु इसके पीछे किसी एक व्यक्ति के द्वारा बार-बार जन्म लेने की भ्रान्ति भी चली आई है, जिसको लेकर अबोध जनता में यह विश्वास फैल गया है कि चौबीस तीर्थकरों की मूल संख्या एक शक्ति विशेष के रुप में निश्चित है और वही महाशक्ति प्रत्येक काल-चक्र में बार-बार जन्म लेती हैं, संसार का उद्धार करती हैं, और फिर अपने स्थान में जाकर विराजमान हो जाती है।
जैन धर्म में मोक्ष प्राप्त करने के बाद संसार में पुनरागमन नहीं माना जाता । विश्व का प्रत्येक नियम कार्य-करण के रुप में सम्बद्ध है। बिना कारण के कभी कार्य नहीं हो सकता। बीज होगा, तभी अंकुर हो सकता है, धागा होगा तभी वस्त्र बन सकता है। आवागमन तथा जन्ममरण पाने का कारण धर्म है, और वह मोक्ष अवस्था में नहीं रहता । अतः कोई भी विचारशील सज्जन समझ सकता है कि- जो आत्मा कर्ममल से मुक्त होकर मोक्ष पा चुका, वह फिर संसार में कैसे आ सकता है। बीज तभी तक उत्पन्न हो सकता है, जब तक कि वह भुना नहीं है, निर्जीव नहीं हुआ है। जब बीज एक बार भुन गया तो फिर कभी भी उससे अंकुर उत्पन्न नहीं हो सकता । जन्म-मरण में अंकुर का बीज कर्म है। जब उसे तपश्चरण आदि धर्म - क्रियाओं से जला दिया, तो फिर जन्म-मरण का अंकुर कैसे फूटेगा ? आचार्य उमास्वाति ने अपने 'तत्वार्थ भाष्य' में, इस सम्बन्ध में क्या ही अच्छा कहा है
दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति नांकुरः । कर्म-बीजे तथा दग्धे, न
रोहति भवांकुरः । ।
बहुत दूर चला आया हूँ, परन्तु विषय को स्पष्ट करने के लिए इतना विस्तार के साथ लिखना आवश्यक भी था । अब आप अच्छी तरह समझ गए होंगे कि जैन तीर्थंकर मुक्त हो जाते हैं, फलतः वे संसार में दुबारा नहीं आते । अस्तु, प्रत्येक काल - चक्र में जो चौबीस तीर्थंकर होते हैं, वे सब पृथक पृथक आत्मा होते हैं, एक नहीं ।
जैनत्व की झाँकी (44)
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