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एवं आध्यात्मिक सुख का महान् अन्तर ध्यान में आया, फलतः संसार की वासनाओं से मुँह मोड़ कर सत्य-पथ के पथिक बन गए। आत्म-संयम की साधना में पहले के अनेक जन्मों से ही आगे बढ़ते गए और अन्त में एक दिन वह आया कि आत्म-स्वरुप की पूर्ण उपलब्धि उन्हें हो गई। ज्ञान की ज्योति जगमगाई और वे तीर्थंकर के रुप में प्रकट हो गए। उस जन्म में भी यह नहीं कि किसी राजा-महाराजा के यहाँ जन्म लिया और व्यस्क होने पर भोग-विलास करते हुए ही तीर्थंकर हो गए। उन्हें भी राज्यवैभव छोड़ना होता है, पूर्ण अहिंसा, पूर्ण सत्य, पूर्ण अस्तेय, पूर्ण ब्रह्मचर्य और पूर्ण अपरिग्रह की साधना में निरन्तर जुटा रहना होता है, पूर्ण विरक्त मुनि बनकर एकान्त निर्जल स्थानों में आत्म-मनन करना होता है, अनेक प्रकार के आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक दुःखों को पूर्ण शान्ति के साथ सहन कर प्राणापहारी शत्रु पर भी अन्तर्हृदय से दयामृत का शीतल झरना बहाना होता है, तब कहीं पाप-मल से मुक्त होने पर केवलज्ञान और केवलदर्शन की प्राप्ति द्वारा तीर्थंकर पद प्राप्त होता है। तीर्थंकर का पुनरागमन नहीं
बहुत से स्थानों पर अजैन बन्धुओं द्वारा यह शंका प्रकट की जाती है कि "जैनों में चौबीस ईश्वर या देव हैं, जो प्रत्येक काल-चक्र में बारी-बारी से जन्म लेते हैं और धर्मोपदेश देकर पुनः अन्तर्धान हो जाते हैं। इस शंका का समाधान कुछ तो पहले ही कर दिया गया है। फिर भी स्पष्ट शब्दों में यह बात बतला देना चाहता हूँ कि-जैनधर्म में ऐसा अवतारवाद नहीं माना गया है। प्रथम तो अवतार शब्द ही जैन-परिभाषा का नहीं हैं। यह वैष्णव-परम्परा का शब्द है, जो उसकी मान्यता के अनुसार विष्णु के बार-बार जन्म लेने के रुप में राम, कृष्ण आदि सत्पुरुषों के लिए आया है। आगे चलकर एक मात्र महापुरुष का द्योतक रह गया और इसी कारण आजकल के जैनबन्धु भी किसी के पूछने पर झटपट अपने यहाँ चौबीस अवतार बता
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