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तीर्थंकर के लिए लोक-भाषा में यदि कुछ कहना चाहें तो उन्हें अध्यात्ममार्ग के सर्वोत्कृष्ट नेता कह सकते हैं। तीर्थंकरों की आत्मा पूर्ण विकसित होती है, फलतः उनमें अनन्त आध्यात्मिक शक्तियाँ पूर्णतया प्रकट हो जाती है। उन्हें न किसी से राग होता है और न किसी से द्वेष । समस्त संसार को वे मित्रता की दृष्टि से देखते हैं,
और वनस्पति आदि स्थावर जीवों से लेकर जंगम प्राणि-मात्र के प्रति प्रेम और करुणा भाव रखते हैं। यही कारण है कि उनके समवसरण में सर्प और नकुल, चूहा और बिल्ली, मृग और सिंह आदि जन्म जात शत्रु प्राणी भी द्वेष-भाव को छोड़ कर बड़े प्रेम व भ्रातृभाव के साथ पूर्ण शान्त अवस्था में रहते हैं। उनकी ज्ञान-शक्ति अनन्त होती है। विश्व का कोई भी रहस्य ऐसा नहीं रहता, जो कि उनके ज्ञान में न देखा जाता हो। उनका जीवन अठारह दोषों से मुक्त, विशुद्ध एवं पवित्र होता है। अष्टादश दोष __जैन-धर्म में मानव-जीवन की दुर्बलता के अर्थात् मनुष्य की अपूर्णता के सूचक निम्नोक्तक अठारह दोष माने गये हैं
१. पिथ्यात्व = असत्य विश्वास। २. अज्ञान। ३. क्रोध। ४. मान। ५. माया = कपट। ६. लोभ। ७. रति = मन पसन्द वस्तु के मिलने पर हर्ष । ८. अरति = अमनोज्ञ वस्तु के मिलने पर खेद । ६. निद्रा। १०. शोक। ११. आलोक = झूठ।
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जैनत्व की झाँकी (40) Jain Education International
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