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________________ से आत्मा को तिराने वाला एकमात्र अहिंसा एवं सत्य आदि धर्म ही है, अतः धर्म को तीर्थ कहना, शब्दशास्त्र की दृष्टि से उपयुक्त ही है। तीर्थंकर अपने समय में संसार-सागर से पार करने वाले धर्म-तीर्थ की स्थापना करते हैं, अतः वे तीर्थकर कहलाते हैं। धर्म के आचरण करने वाले साधु, साध्वी, श्रावक-गृहस्थ पुरुष और श्राविका- गृहस्थ स्त्री-रुप चतुर्विध संघ को भी गौण दृष्टि से तीर्थ कहा जाता है। अतः चतुर्विध धर्म-संघ की स्थापना करने वाले महापुरुषों को भी तीर्थंकर कहते हैं। जैन-धर्म की मान्यता है कि जब-जब संसार में अत्याचार का राज्य होता है। प्रजा दुराचारों में उत्पीडित हो जाती है, लोगों में धार्मिक भावना क्षीण होकर पाप भावना जोर पकड़ लेती है, तब-तब संसार में तीर्थकरों का अवतरण होता है और वे संसार की मोह-माया का परीत्याग कर, त्याग और वैराग्य की अखण्ड साधना में रमकर, अनेकानेक भयंकर कष्ट उठाकर, पहले स्वयं सत्य की पूर्ण ज्योति का दर्शन करते हैं-जैन परिभाषा के अनुसार केवलज्ञान प्राप्त करते हैं, और फिर मानव-संसार को धर्मोपदेश देकर उसे असत्य प्रपंच के चंगुल से छुड़ाते हैं। सत्य के पथ पर लगाते हैं और संसार में सुख-शान्ति का आध्यात्मिक साम्राज्य स्थापित करते हैं। तीर्थंकरों के शासन काल में प्रायः प्रत्येक भव्य स्त्री-पुरुष आपको पहचान लेता है, और स्वयं सुखपूर्वक जीना, दूसरों को सुख–पूर्वक जीने देना और तथा दूसरों को सुखपूर्वक जीते रहने के लिए अपने सुखों की कुछ भी परवाह न करके अधिक से अधिक सहायता देना'-उक्त महान् सिद्धान्त को अपने जीवन में उतार लेता है। अस्तु, तीर्थंकर वह है, जो संसार को सच्चे धर्म का उपदेश देता है, आध्यात्मिक तथा नैतिक पतत की ओर ले जाने वाले पापाचारों से बचाता है, संसार को भौतिक सुखों की लालसा से हटाकर अध्यात्म-सुखों का प्रेमी बनाता है, और बनाता है, नरक-स्वरुप उन्मत्त एवं विक्षिप्त संसार को सत्य, शिवं, सुन्दरं का स्वर्ग ! - Jain Education International For Private & Personal Use Only the dirtos (39) ary.org
SR No.001349
Book TitleJainatva ki Zaki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1998
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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