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________________ १२. चौर्य = चोरी। १३. मत्सर = डाह। १४. भय। १५. हिंसा। १६. राग = आसक्ति। १७. क्रीड़ा = खेल-तमाशा व नाच-रंग। १८. हास्य = हँसी-मजाक। जब तक मनुष्य इन अठारह दोषों से सर्वथा मुक्त नहीं होता, तब तक वह आध्यात्मिक शुद्धि के पूर्ण विकास के पद पर नहीं पहुँच सकता। ज्यों ही वह अठारह दोषों से मुक्त होता है, त्यों ही आत्मशुद्धि के महान् और ऊँचे शिखर पर पहुँच जाता है तथा केवलज्ञान एवं केवल-दर्शन के द्वारा समस्त विश्व का ज्ञाता-द्रष्टा बन जाता है। तीर्थंकर भगवान् उक्त अठारह दोषों से सर्वथा रहित होते हैं। एक भी दोष, उनके जीवन में नहीं रहता। तीर्थंकर ईश्वरीय अवतार नहीं हैं । जैन-तीर्थंकर के सम्बन्ध में कुछ लोग बहुत भ्रान्त धारणाएँ रखते हैं। उनका कहना है कि-जैन अपने तीर्थंकरों को ईश्वर का अवतार मानते हैं। मैं उन बन्धुओं से कहूँगा कि वे भूल में हैं। जैन-धर्म ईश्वरवादी नहीं हैं। वह संसार के कर्ता, धर्ता और संहर्ता किसी एक ईश्वर को नहीं मानता। उसकी यह मान्यता नहीं है कि हजारों भुजाओं वाला, दुष्टों का नाश करने वाला, भक्तों का पालन करने वाला, सर्वथा परोक्ष में कोई एक ईश्वर है और वह यथासमय त्रस्त संसार पर दया भाव लाकर गो-लोक, सत्य-लोक या बैकुण्ठ धाम आदि से दौड़कर संसार में आता है, किसी के यहाँ जन्म लेता है, और फिर लीला दिखाकर वापस लौट जाता है। अथवा जहाँ कहीं भी है, वहीं से बैठा हुआ संसार-घटिका की सुई फेर देता और मनचाहा बजा देता है। ___Jain Education International For Private & Personal use Only जैल लीtelif41).org
SR No.001349
Book TitleJainatva ki Zaki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1998
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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