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हीन एवं पतित समझना निरी भ्रान्ति है। अतएव भगवान् ने भिक्षु संघ के समान ही भिक्षुणियों का भी एक संघ बनाया, जिसकी अधिनेत्री 'चन्दनबाला' थीं, जो अपने संघ की सब प्रकार की देख-देख स्वतन्त्र रुप से किया करती थीं। भगवान् बुद्ध ने भी भिक्षुणी - संघ की स्थापना की थी, परन्तु वह स्वयं नहीं, आनन्द के अत्याग्रह से गौतमों पर दया लाकर ! उनका विचार इस सम्बन्ध में कुछ और ही था ।
भगवान् महावीर के संघ में जहाँ भिक्षुओं की संख्या चौदह हजार थी, वहाँ भिक्षुणियों की संख्या छत्तीस हजार थी । श्रावकों की संख्या 1,59,000 थीं, तो श्राविकाओं की संख्या 3,18,000 थी। स्त्री - जाति के लिए भगवान् के धर्म-प्रवचन में कितना आकर्षण था, इसकी एक निर्णयात्मक कल्पना इन संख्याओं द्वारा की जा सकती है।
जाति बनाम कर्म
भगवान् महावीर के द्वारा तत्कालीन शूद्र, जातियों को भी उत्थान का महान् अवसर प्राप्त हुआ। वे जहाँ भी गए, सर्वत्र सर्वप्रथम एक ही सन्देश लेकर गए कि - "मनुष्य जाति एक हैं, उसमें जात-पाँत की दृष्टि से विभाग की कल्पना करना किसी भी प्रकार उचित नहीं । ऊँच-नीच के सम्बन्ध में उनके विचार कर्ममूलक थे, जाति-मूलक नहीं। उनका उपदेश था कि मनुष्य जाति से नहीं, कर्म से ही ऊँच-नीच होता है। यह बात नहीं थी कि वे आजकल के उपदेशकों के समान एक मात्र उपदेश देकर ही रह गए हों। हरिकेशबल जैसे चाण्डालों को भी अपने भिझु-संघ में सम्मानपूर्ण अधिकार देकर, उन्होंने जो कुछ कहा, वह करके भी दिखाया। आगम-साहित्य में एक भी उदाहरण ऐसा नहीं मिलता, जहाँ वे किसी राजा, महाराजा अथवा ब्राह्मण या क्षत्रिय के हमलों में विराजे हों। हाँ, पोलासपुर में सद्दाल कुम्हार के यहाँ विराजना उनकी पतित-पावनता का वह उज्जवल आदर्श है, जो कोटि-कोटि युगों तक अजर-अमर रहकर संसार को समता और दीन-बन्धुता का पाठ पढ़ाता रहेगा !
जैनत्व की झाँकी (36)
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