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________________ केवल दर्शन का अखण्ड प्रकाश प्राप्त किया। अब वे तीर्थंकर की भूमिका पर पहुँच गए। जैन-धर्म की मान्यता के अनुसार कोई भी मनुष्य जन्म से भगवान् नहीं होता । भगवत्पद की प्राप्ति के लिए साधना के निकट पथ पर चलना होता है, जीवन को निष्काम एवं निष्पाप बनाना होता है । सेवा, सद्भाव और संयम की उच्चतम साधना करनी होती है । तब कहीं मनुष्य भगवत्पद का अधिकारी होता है । भगवान् महावीर का जीवन हमारे समक्ष आध्यात्मिक विकासक्रम का उज्जवल आदर्श उपस्थित करता है । धर्म-क्रान्ति भगवान् महावीर को जैसे ही केवल ज्योति के दर्शन हुए, वे अपने एकान्त साधनारत जीवन को वन से हटाकर मानव-समाज में ले आए। उन्होंने दलित मानवता के विकास और अभ्युदय के लिए प्रबल आन्दोलन चालू किया। तत्कालीन धार्मिक तथा सामाजिक भ्रान्त रुढ़ियों के प्रति वह महान् सफल अभियान किया कि अन्ध-विश्वासों के सुदृढ़ दुर्ग ढह ढह कर भूमिसात् होने लगे, भारत में चारों ओर क्रान्ति की बेगवती धारा बह निकली। दम्भ और आडम्बर पर टिके हुए धर्म गुरुओं के स्वर्णसिंहासन हिल उठे । उनका विरोध भी बड़े जोरों से हुआ। प्राचीनता के पुजारियों ने प्रचलित परम्पराओं की रक्षा के लिए जी-तोड़ प्रयत्न किये, मनमाने आक्षेप भी किये, परन्तु महापुरुष आपत्तियों की शैलश्रृंखलाओं से क्या कभी रुका करते हैं ? वे तो अपने निश्चित ध्येय पर प्रतिपल आगे बढ़ते ही रहते हैं, और अन्त में सफलता के सिंह द्वार पर पहुँच कर ही विश्राम लेते हैं। धर्म-संघ भगवान् महावीर के अहिंसा-प्रधान तथा सदाचारमूलक धर्मोपदेश ने भारत की काया पलट कर दी। हिंसक विधि-विधानों में लगे हुए जैनत्व की झाँकी (34) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001349
Book TitleJainatva ki Zaki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1998
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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