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क्रान्ति की प्रचण्ड ज्वाला अन्दर ही अन्दर धधक रही थी । हृदयमन्थन चलता रहा। दो वर्ष तक गृहस्थ जीवन में ही तपस्वियों जैसी उग्र साधना चलती रही । अन्ततोगत्वा तीस वर्ष की भरी जवानी में मार्गशिविर (मंगसिर ) कृष्णा दशमी के दिन विदेह की विशाल राज- लक्ष्मी को ठुकरा कर वे पूर्ण अकिंचन भिक्षु बनकर निर्जन वनों की ओर चल पड़े ।
प्रश्न हो सकता है कि भगवान् महावीर ने भिक्षु होते ही उपदेश की अमृतवर्षा क्यों न की । बात यह है कि महावीर आजकल के साधारण सुधारकों जैसी मनोवृत्ति न रखते थे कि जो कुछ मन में आए, झट-पट कह डाला, करने-धरने को कुछ नहीं । उनकी तो यह अटल धारणा थी- "जब तक नेता अपनी जीवन को न सुधार ले, अपनी दुर्बलताओं पर विजय प्राप्त न कर ले, तब तक वह प्रचार-क्षेत्र में कभी भी सफलता प्राप्त नहीं कर सकता।" महावीर इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए बाहर वर्ष तक कठोर तपःसाधना करते रहे। मानवसमाज से प्रायः अलग-अलग सूने जंगलों तथा पर्वतों की गहन गुफाओं में रहकर आत्मा की प्रसुप्त अनन्त आध्यात्मिक शक्तियों को जगाना ही उन दिनों उनका एकमात्र कार्य था । एक से एक मनमोहक प्रलोभन आँखों के सामने से गुजरे, एक से एक भयंकर आपत्तियों ने चारों ओर चक्कर काटा, परन्तु महावीर हिमालय की भाँति सर्वथा अचल और अडिग रहे । आज जिन घटनाओं के पठन - मात्र से हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं, वे प्रत्यक्ष रुप से जिस जीवन पर गुजरी होंगी, वह कितना महान् होगा ।
अहिंसा और सत्य की पूर्ण साधना के बल से जीवन की समस्त कालिका धुल चुकी थी, पवित्रता और स्वच्छता की निर्मल रेखाएँ, प्रस्फुटित हो चुकी थीं, आत्मा की अनन्त ज्ञान - ज्योति जगमगा उठी थी, अतः वैशाख शुक्ला दशमी के दिन ऋजुबालुका नदी के तट पर शाल वृक्ष के नीचे ध्यानमुद्रा में भगवान् महावीर ने केवलज्ञान और
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भगवान महावीर ( 33 )
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