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________________ प्रभु ऋषभदेव का समाज-विधायक स्वरुप तीर्थंकर नेमिनाथ की करुणा और भगवान् पार्श्वनाथ की धर्मक्रान्ति-तीनों का विराटस्वरुप भगवान के व्यक्तित्व में प्रकट होता है। पच्चीस-सौ वर्ष पूर्व के भारत में चलकर उस विराट् व्यक्तित्व का दर्शन कीजिए। भगवान्महावीर - युग-दर्शन आइए, जरा अपनी स्मृति को पुराने भारत में ले चलें। कितने पुराने भारत में ? यही करीब पच्चीस शताब्दी पुराने भारत में। .......हा हन्त ! यह सब क्या हो रहा है ? लाखों मूक पशुओं की लाशें यज्ञ की बलि-बेदी पर तड़प रही है। भोले-भाले मानव-शिशु और पकी आयु के वृद्ध भी देव-पूजा के बहम में मौत के घाट उतारे जा रहे हैं। शूद्र भी तो मनुष्य हैं। इन्हें क्यों मनुष्यता के सर्वमान्य अधिकरों से वंचित कर दिया गया है। मातृ-जाति का इतना भयंकर अपमान ! सामाजिक क्षेत्र में रात-दिन की दासता के सिवा इनके लिए और कोई काम ही नहीं ? प्रत्येक नदी, नाला, प्रत्येक ईट पत्थर, प्रत्येक झाड़-झंखाड़ देवता बना हुआ है। और मूर्ख मानव समाज अपने महान् व्यक्तित्व को भुलाकर इनके आगे दीन-भाव से अपना उन्नत मस्तक रगड़ता फिर रहा है। आध्यात्मिक और सांस्कृतिक पतन का इतना भयंकर दृश्य ! हृदय काँप रहा है। ___ जी हाँ, यह ऐसा ही दृश्य है। आप देख नहीं रहे हैं, यह आज से पच्चीस शताब्दी पुराना भारत है और ये सब लोग उस पुराने भारत के निवासी हैं। आज भी इनके तत्कालीन जीवन की झाँकी वेद और पुराणों के पृष्ठों पर अंकित है। Jain Education International भगवान महावीर (31) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001349
Book TitleJainatva ki Zaki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1998
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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