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श्री कौशाम्बीजी अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक 'भारतीय-संस्कृति और अहिंसा' में लिखते हैं___“परीक्षित के बाद जनमेजय हुए और उन्होंने कुरु देश में महायज्ञ करके वैदिक-धर्म का झण्डा लहराया। उसी समय काशी देव में पार्श्व एक नवीन संस्कृति की आधारशिला रख रहे थे।
"श्री पार्श्वनाथ का धर्म सर्वथा व्यवहार्य था। हिंसा, असत्य, स्तेय और परिग्रह का त्याग करना, यह चातुर्याम संवरवाद उनका धर्म था। इसका उन्होंने भारत में प्रचुर प्रचार किया। इतने प्राचीन काल में अहिंसा को इतना सुव्यवस्थित रुप देने का, यह प्रथम ऐतिहासिक उदाहरण है।
.....श्री पार्श्व मुनि ने सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह-इन तीन नियमों के साथ अहिंसा का मेल बिठाया। पहले अरण्य में रहने वाले ऋषिमुनियों के आचरण में जो अहिंसा थी, उसे व्यवहार में स्थान न था। अस्तु, उक्त तीन नियमों के सहयोग से अहिंसा सामाजिक, बनी, व्यावहारिक बनी। .
.......श्री पार्श्व मुनि ने अपने नये धर्म के प्रसार के लिए संघ बनाया। बौद्ध-साहित्य पर से ऐसा मालूम होता है कि बुद्ध के काल में जो संघ अस्तित्व में थे, उनमें जैन साधु तथा साध्वियों का संघ सबसे बड़ा था। ___भगवान् पार्श्वनाथ के जीवन एवं इतिहास के सम्बन्ध में, वर्तमान में और भी अनेक तथ्य प्रकाश में आये हैं, जिनसे यह सिद्ध हो चुका है कि श्री पार्श्वनाथ जैन धर्म के एक ऐतिहासिक एवं क्रान्तिकारी महापुरुष हो गए हैं।
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___Jain Eजैनत्य की प्रक्रिी (30)
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