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उपदेश दिया और साधु तथा गृहस्थ-दोनों का ही कर्तव्य बताया। यह कर्तव्य ही जैन धर्म के नाम से प्रसिद्ध हुआ। 'जिन' का बताया हुआ धर्म = कर्त्तव्य, जैन-धर्म।
भगवान् ऋषभदेव ने स्त्री और पुरुष-दोनों के जीवन का महत्व देते हुए चतुर्विध संघ की स्थापना की-साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका । भगवान के प्रथम गणधर, चक्रवती भरत के सुपुत्र ऋषभसेन हुए और सबसे प्रमुख आर्यिकाएं दोनों पुत्रियाँ ब्राह्मी तथा सुन्दरी हुई।
भगवान का जन्म चैत्र कृष्णा अष्टमी को हुआ था। और मुनिदीक्षा भी चैत्र कृष्णा अष्टमी को ही हुई। केवलज्ञान, फाल्गुन कृष्णा एकादशी को, और निर्वाण, माघ कृष्णा त्रयोदशी को हुआ। आज भी चैत्र कृष्णा अष्टमी के दिन भगवान ऋषभदेव की जयन्ती मनायी जाती है।
भगवान ऋषभदेव मानव-जाति के सर्वप्रथम उद्धारकर्ता थे। भारतीय इतिहास में उनका नाम अजर-अमर रहेगा। भगवान ऋषभदेव केवल जैन धर्म की ही विभूति न थे, प्रत्युत विश्व की विभूति थे। यह उनकी महत्ता का ही फल है कि वैदिक-धर्म ने भी उन्हें अपना अवतार माना है।
श्रीमद्भागवत में भगवान ऋषभदेव की महिमा का मुक्त कण्ठ से वर्णन किया गया है। वहाँ लिखा है कि भगवान ऋषभदेव वेदों के भी परम गुरु थे, “सकल वेद-लोक-देव-ब्राह्मण-गवां परमगुरोर्भगवतः ऋषभाख्यस्य"। इससे आगे भगवान के अवतार की महत्ता और उपयोगिता बताते हुए लिखा है कि "अयमवतारो रजसोपप्लुत कैवल्योपशिक्षणार्थः । भगवान का यह अवतार रजोगुण से व्याप्त लोगों को मोक्ष-मार्ग की शिक्षा देने के लिए हुआ था। इस प्रकार भगवान् ऋषभदेव की महिमा के स्वर जैन-परम्परा एवं वैदिक-परम्परा में एक समान श्रद्धा के साथ मुखरित हुए हैं।
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१. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र में दीक्षा तिथि चैत्र कृष्णा नवमी है।
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