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भी उन्होंने प्रसन्नचित्त से सहन किया। भगवान् की तितिक्षा बहुत उच्चकोटि पर पहुँच गई थी। परन्तु बारह मास व्यतीत होने पर भगवान् ने विचार किया कि “मैं तो इस प्रकार निराहार साधना का लम्बा मार्ग अपना कर आत्म-कल्याण कर सकता हूँ। मुझे तो भूख-प्यास के कष्ट किसी भाँति भी विचलित नहीं कर सकते। परन्तु मेरे अनुकरण पर चलने वाले दूसरे साधकों का क्या होगा ? वे तो इस प्रकार लम्बा तपश्चरण नहीं कर सकेंगे। बिना आहार-यात्रा के साधारण मानव-शरीर टिक भी नहीं सकता। बेचारे चार हजार साधक किस बुरी तरह पथ-भ्रष्ट हो गये हैं। आने वाले साधकों को मार्ग-प्रदर्शन के हेतु मुझे भी आहार लेना चाहिए। अस्तुः भगवान् ने आहार के लिए नगर में प्रवेश किया। उस समय की जनता साधुओं को आहार देने की विधि नहीं जानती थी। अतः भगवान को मुनिवृत्ति के अनुकूल निर्दोष आहार की प्राप्ति न हो सकी। सदोष आहार भगवान् ने नहीं लिया। बहुत से लोग तो भगवान् की सेवा में हाथी-घोड़ों की भेंट लाते और बहुत से रत्नों से भरे थाल भी ले आते। अन्ततोगत्वा हस्तिनापुर के राजकुमार श्रेयांस ने अपने पूर्वजन्म-सम्बन्धी जातिस्मरण ज्ञान से जान कर, निर्दोष आहार के रुप में ईख का रस बहराया। यह संसार-त्यागी मुनियों को आहार देने का पहला दिन था। बैशाख शुक्ला तृतीया-अक्षय तृतीया के रुप में वह दिन आज भी एक उत व के रुप में मनाया जाता है। प्रथम धर्म प्रर्वतक
भगवान ऋषभदेव नाना प्रकार के उग्र तपश्चरण करते हुए आत्म- साधना में लीन रहे। जब वे आव्यात्मिक दशा की उच्च कोटि पर पहुंचे तो ज्ञानावरण आदि आत्मस्वरुप के घातक घातिया कर्मो का नाश कर केवल ज्ञान प्राप्त किया। भगवान को ज्ञान एक वट-वृक्ष के नीचे हुआ था, अतः आज भी भारत में वट-वृक्ष को बहुत आदर की दृष्टि से देखा जाता है। भगवान ने केवल ज्ञान प्राप्त कर धर्म का
जैनत्व की झाँकी (20) Jain Education International
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