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________________ मत-मतान्तरों का उद्भव श्री ऋषभदेव जी के साथ चार हजार अन्य पुरुषों ने भी दीक्षा ली थी। इनमें भी अनेक लोग प्रतिष्ठित जननायक थे, और भगवान् से अत्यधिक घनिष्ठ प्रेम करते थे। वे लोग किसी गम्भीर चिन्तन के बाद आत्म-निरीक्षण की दृष्टि से तो मुनि बने नहीं थे, भगवान के प्रेम के कारण देखा-देखी ही उनके पीछे चल दिये थे। अतएव मुनि-दीक्षा में आध्यात्मिक आनन्द इन्हें न मिल सका। भूख-प्यास के कारण घबरा उठे । भगवान् मौन रहते थे, इसलिए इनको पता न चला कि क्या करें और क्या न करें। आखिर मुनि-वृत्ति का मार्ग छोड़कर ये सब लोग जंगल में कुटिया बनाकर रहने लगे और कन्द मूल तथा वन-फल खाकर गुजारा करने लगे। भारतवर्ष में विभिन्न धर्मो एवं मतों का इतिहास, यही से प्रारम्भ होता है। भगवान् ऋषभदेव के समय में ही इस प्रकार तीन सौ तिरेसठ मत स्थापित हो चुके थे। . धर्म के मुख्यतया दो अंग हैं-तत्व-ज्ञान और आचरण। जब मनुष्य की ज्ञान-शक्ति दुर्बल होती है, तो तत्व ज्ञान में उलट फेर होता है और इसके फलस्वरुप जड़, चैतन्य, पाप-पुण्य, बन्ध और मोक्ष आदि के सम्बन्ध में एक-दूसरे से टकराती हुई विभिन्न विचारधाराएँ बह निकलती हैं। जब आचरण-शक्ति क्षीण होती है, तो आचार-सम्बन्धी · नियमों को भोग-वृद्धि की तीव्रता के कारण विपरीत रुप दिया जाता है और झूठे तर्को की आड़ में अपनी दुर्बलता का संरक्षण किया जाता है। धार्मिक मत-भेदों में प्रायः ये ही मुख्य कारण होते हैं। दुर्भाग्य से भगवान् ऋषभदेव के समय में भी मत-विभिन्नता के ये ही दो मुख्य कारण हुए। वर्षीतप का पारणा भगवान ऋषभदेव ने बारह महीने तक निरन्तर निराहार रहकर संयम-योग की साधना की। भयंकर-से-भयंकर प्राकृतिक संकटों को - - - - भगवान ऋषभदेव (19) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International mational
SR No.001349
Book TitleJainatva ki Zaki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1998
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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