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जो व्यापार-व्यवसाय तथा कृषि और पशु-पालन आदि में निपुण थे, वे वैश्य कहलाये। जिन्हें सेवा का कार्य सौंपा गया, वे 'शूद्र' कहलाये ।
चौथे ब्राह्मण वर्ण की स्थापना, भगवान् के सुपुत्र महाराज भरत ने, अपने चक्रवर्ती काल में की। जो लोग अपना जीवन ज्ञानाभ्यास में लगाते थे, प्रजा को शिक्षा दे सकते थे, समय पर सन्मार्ग का उपदेश करते थे, वे ब्राह्मण कहलाये ।
भगवान् ऋषभदेव जी ने वर्षों की स्थापना में कर्म की महत्ता को स्थान दिया था, जन्म या जाति को नहीं। आगे चल कर वर्णाश्रम धर्म का महत्व बढ़ा तो कर्मणा वर्ण के स्थान पर जन्मना वर्ण के सिद्धान्त को प्रतिष्ठा मिल गई। आज के ये जाति-गत ऊँच-नीच के भेद उसी जातीय अहंकार की देन है । यौगलिक सभ्यता में तो जातिवाद का नाम तक भी नहीं था । उस समय, मनुष्य, केवल मनुष्य था, उसके बीच में कोई भेद की दीवार नहीं थी। आदि ऋषि
ऋषभदेव जी का हृदय आरम्भ से ही वैराग्य-रस से परिप्लावित था। परन्तु जन-कल्याण की भावना से वे गृहस्थ-दशा में रह रहे थे और मानव-समाज को सुव्यवस्थित बनाने का प्रयत्न कर रहे थे। अब ज्यों ही मानव-जाति व्यवस्थित रुप से सभ्यता के ढाँचें में ढलकर उन्नति के पथ पर अग्रसर होने लगी, तो प्रजा के शासन का भार भरत और बाहुबली आदि सुपुत्रों को दे कर स्वयं ने मुनि दीक्षा अंगीकार कर ली ।
दीक्षा लेने के बाद वे एकान्त निर्चन सूने वनों में ध्यान लगाकर खड़े रहते। उन दिनों वे अखण्ड मौन रखते थे। किसी से कुछ भी बोलते -चालते न थे। और तो क्या, एक वर्ष तक तो तपः साधना में इतने लीन रहे कि शरीर रक्षा के हेतु अन्न-जल भी ग्रहण नहीं किया ।
जैनत्व की झाँकी (18)
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