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शासक के रुप में आदर देना उनकी स्वतन्त्र प्रकृति के लिए सर्वथा असम्भव था। अन्त में दोनों का परस्पर युद्ध हुआ । बाहुबली ने चक्रवती को द्वन्द्व युद्ध में पछाड़ कर नीचा दिखा दिया, किन्तु बड़े भाई को अपमानित करने के कारण उन्हें तत्काल ही वैराग्य हो आया और परिवार, राज्य, कोष तथा प्रभुत्व का परित्याग कर मुनि बन गए । इस घटना से बाहुबली की स्वतन्त्रता, निःस्पृहता, आत्म गौरव, वीरता और धार्मिकता का भली-भाँति पता लग सकता है। हाँ, तो हम भगवान् ऋषभदेव के परिवार की बात कह रहे हैं। भरत और बाहुबली के अलावा उसके अट्ठानवें पुत्र और भी थे । वे सब-के-सब बहुत सरल और सन्तोषी थे । भगवान् के चरणों में दीक्षित हो गए थे। भगवान् को दो सुपुत्रियाँ भी थीं- ब्राह्मी और सुन्दरी । ब्राह्मी सुमंगला की पुत्री थी तो सुन्दरी सुनन्दा की। दोनों ही बहनों का आपस में प्रेम, जैन इतिहास में बड़े गौरव की दृष्टि से अंकित किया गया है।
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ब्राह्मीं और सुन्दरी बहुत ही बुद्धिमती एवं चतुर कन्याएँ थीं। भगवान् ऋषभदेव ने अपनी दोनों पुत्रियों को बहुत उच्च कोटि का शिक्षण दिया। भगवान् ऋषभदेव, इस प्रकार आदि युग के सर्वप्रथम शिक्षाशास्त्री थे, जिन्होंने स्त्री पुरुष दोनों के लिए शिक्षा में कला और उद्योग का अद्भुत सम्मिश्रण किया ।
वर्णव्यवस्था का सूत्रपात
भारतीय प्रथा का संगठन सुव्यवस्थित रुप से चलता रहे, इस उद्देश्य से ऋषभदेव जी ने, मानव-जाति को तीन भागों में विभक्त किया - क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । जो लोग अधिक शूरवीर थे शस्त्र चलाने में कुशल थे, संकटकाल में प्रजा की रक्षा कर सकते थे, और अपराधियों को दंड द्वारा शिक्षा देकर कुशल शासक बन सकते थे, उन्हें क्षत्रिय पद दिया गया।
१ येषां खलु महायोगी भरतो श्रेष्ठः श्रेष्ठगुण आसीद येनेदं भारत पंमिति व्यपदिशन्ति । -- श्रीमदभागवत स्कन्ध ५ अध्याय ४ - श्रीमद्भागवत स्कन्ध ५ अध्याय ४
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भगवान ऋषभदेव (17)
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