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हुआ करता है ? संघर्ष, द्वन्द्व, लड़ाई-झगड़ा ! शान्त भौगलिक जनता में संग्रह बुद्धि पैदा हो गई, भविष्य की चिन्ता ने निःस्पृहता एवं उदारता कम कर दी और इसके फलस्वरुप आपस में बैर विरोध, घृणा, द्वेष बढ़ने लगा । निष्क्रिय से सक्रिय कर्म - भूमि का आरम्भ काल था यह ।
समय को परखने वाले श्री नाभिराजा ने अब जन नेतृत्व का भार अपने सुयोग्य पुत्र ऋषभ को सौंप दिया। बड़ा कठिन समय था वह । मानव-जाति का भाग्य आशा और निराशा के बीच झूल रहा था । उस समय मानव-जाति को एक सुयोग्य कर्मठ नेता की आवश्यकता थी और वह श्री ऋषभदेव के रुप में उसे मिल गये ।
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भगवान ऋषभदेव ने जनता का नेतृत्व बड़ी कुशलता और योग्यता से किया । उनके हृदय में मानव-जाति के प्रति अपार करुणा उमड़ रही थी । मानव जाति को विनाश के भयंकर गर्त से बचाने के लिए, उन्होंने दिन-रात एक कर दिया। भगवान ने जीवनोपयोगी साधनों के उत्पादन और संरक्षण का सब प्रकार से क्रियात्मक उपदेश दिया । वृक्षों को सींचने की, नये वृक्ष लगाने की, अन्न पकाने की. व्यापार करने की, पात्र बनाने की, वस्त्र बुनने की, रोग - चिकित्सा की, सन्तान के पालन-पोषण आदि की सब पद्धतियाँ बतलाई । गाँव कैसे बसाएँ, नगरों का निर्माण कैसे करें, गरमी - सरदी और वर्षा से ये सब कलाएँ जनता को सिखलाई। भारतवर्ष की सर्वप्रथम नगरी, भगवान् ऋषभदेव के तत्वावधान में बनी और उसका नाम 'विनीता' रखा गया, जो आगे चल कर अयोध्या के नाम से प्रसिद्ध हुई। उन्होंने मनुष्यों को निस्सहाय व प्रकृतिमुखापेक्षी रहने के बदले पुरुषार्थ का पाठ पढ़ाया और प्रकृति को अपने नियन्त्रण में कर उससे मनचाहा काम लेना सिखलाया। प्रकृति पर अधिकार पाने की और मनुष्य की यह सर्वप्रथम विजययात्रा भगवान ऋषभदेव के नेतृत्व में प्रारम्भ हुई, इसलिए जैन इतिहासकारों ने भगवान् ऋषभदेव का दूसरा गुण-सम्पन्न नाम 'आदिनाथ' बताया है ।
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भगवान ऋषभदेव (15)
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