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________________ ५ जब मनुष्य भोग- भूमि में अपनी वैयक्तिक सीमा में बद्ध होकर निर्द्वन्द्व विचर रहा था, तब सभ्यता और संस्कृति का प्रश्न उसके सामने नहीं था, उस युग में मानवीय चेतना को उद्बुद्ध करके उसके पुरुषार्थ को भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रगति की दिशा में प्रेरित किया भगवान् ऋषभदेव ने । धर्म एवं संस्कृति के प्रथम उपदेशक भगवान् ऋषभदेव की यह जीवन-झांकी देखिए । भगवान् ऋषभदेव भगवान् ऋषभदेव कब हुए, इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए हमें मानव-सभ्यता के आदिकाल में जाना होगा। वह आदिकाल, जब न गाँव बसे थे और न नगर, न खेती-बाड़ी का धन्धा था और न दुकानदारी, न कोई कला थी और न कोई उद्योग । सब लोग वृक्षों के नीचे रहते थे और कन्द-मूल एवं वनफल खाकर जीवन-यापन करते थे। मानव जीवन का कोई महान उद्देश्य तब की जनता के सामने नहीं था । जीवन सुखमय अवश्य था, किन्तु कर्त्तव्य - शून्य | जैन परिभाषा में यह काल युगलियों का काल था, वर्तमान अवसर्पिणी का तीसरा सुषमा - दुषमा 'आरक' समाप्त होने को था । भगवान ऋषभदेव, इसी युग के जन-नायक अन्तिम कुलकर श्री नाभिराजा के सुपुत्र थे । उनकी माता का नाम मरुदेवी था। भगवान ऋषभदेव का बाल्यकाल इसी यौगलिक सभ्यता में गुजरा। ऋषभदेव या युग काल-चक्र बदल रहा था । प्रकृति का वैभव क्षीण होने लगा, और जो वृक्ष थे, वे भी फूल - फल कम देने लगे। इधर उपभोग करने वाली जनसंख्या दिन प्रति दिन बढ़ रही थी । जीवनोपयोगी साधन कम हों और उनका उपभोग करने वाले अधिक हों, तब बताइए, क्या जैनत्व की झाँकी (14) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001349
Book TitleJainatva ki Zaki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1998
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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