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सम्यक्- ज्ञान
वस्तु के स्वरुप को जानना, अर्थात् जैसा है वैसा समझना 'सम्यक् - ज्ञान' है। जीव, अजीव, पाप, पुण्य, आसव, संवर, निजरा, वंध और मोक्ष इन नौ तत्वों का यथार्थ रूप से ज्ञान करना सम्कय् - ज्ञान है । सम्यक् - ज्ञान पूर्ण रुप से अरिहन्त - दशा में प्राप्त होता है। जब आत्मा राग द्वेष का क्षय कर केवल ज्ञान प्राप्त कर लेता है, तब वह पूर्ण ज्ञानी हो जाता है।
सम्यक् चरित्र
सम्यक् - दर्शन और सम्यक् ज्ञान के अनुसार यथार्थ रूप से अहिंसा एवं सत्य आदि सदाचार का पालन करना भी सम्यक् - चरित्र है। गृहस्थ का सम्यक् चारित्र अपूर्ण होता है, और साधु का सम्यक् चारित्र पूर्ण होता है। साधु के सम्यक् चरित्र की पूर्णता भी केवल ज्ञान होने के बाद मोक्ष में जाने से कुछ समय पहले ही होती है। वीतराग आत्मा की मन, वचन और शरीर से पूर्ण निष्प्रकम्प अर्थात् अचंचल स्थिर अवस्था का नाम ही पूर्ण चारित्र है, और वह इसी समय प्राप्त कर लेता है ।
पहले सम्यक् - दर्शन होता है। सम्यक् दर्शन के होते ही उसी क्षण सम्यक् - ज्ञान होता है और इसके बाद में सम्यक् - चरित्र होता है । सम्यक् - दर्शन अर्थात् सच्ची श्रद्धा के बिना ज्ञान, सम्यक् ज्ञान नहीं होता, अज्ञान ही रहता है। और सम्यक् दर्शन तथा सम्यक् - ज्ञान के बिना चारित्र, सम्यक् चारित्र नहीं होता ।
जैन-धर्म में उक्त सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् - चारित्र को रत्न कहते हैं। आत्मा की अनादिकालीन आध्यात्मिक दरिद्रता इन्हीं तीनों के द्वारा मिटती है, अतः इन तीनों की 'रत्नत्रय' के नाम से प्रसिद्धि है। वस्तुतः आत्मा का यही अन्तरंग आध्यात्मिक ऐश्वर्य है। इस अन्तरंग ऐश्वर्य के द्वारा ही आत्मा को सच्चा आनन्द प्राप्त हो सकता है ।
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तीन रत्न (13) www.jainelibrary.org