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जब तक सत्य को समझने की दृष्टि सम्यक (सही) नहीं होती है, तब तक ज्ञान भी सम्यक (सही) नहीं हो सकता है और जब तक किसी वस्तु का सम्यकज्ञान नहीं हो जाता है, तब तक उस पर सम्यक आचरण कैसे किया जाय ? और बिना - सम्यक | आचरण किये संसार-सागर को तैरकर पार नहीं किया जा सकता । इसलिए प्रस्तुत निबन्ध में संसार - सागर को तैरने के सम्यक्-साधनों का ज्ञान कराया गया है।
तीन रत्न
तीर्थंकर किसे कहते हैं ?
तीर्थ तैरने साधन को कहते हैं। जो संसार-सागर से स्वयं तैरकर पार होकर अन्य मुमक्षु भव्य जीवों को तैरने के साधनों का उपदेश कराता है, तैरने के साधनों का प्रचार करता है, 'तीर्थंकर' है । भगवान महावीर आदि जिन भगवान तीर्थंकर कहलाते हैं ।
तैरने के साधन
संसार - सागर से तैरने के साधन तीन हैं
(१) सम्यक् - दर्शन (२) सम्कय् - ज्ञान, (३) और सम्यक् - चरित्र । सम्यक दर्शन
'देव' वीतराग अरिहन्त भगवान, 'गुरु' आत्म-साधक निर्ग्रन्थ साधु और 'धर्म' अहिंसा, सत्य आदि आत्मधर्म- इन तीनों की सच्ची श्रद्धा का नाम ही सम्यक् - दर्शन है।
सम्यक् - दर्शन का ही दूसरा नाम सम्यक्त्व है। सम्यक्त्व का अर्थ है - सच्चाई । विवेकपूर्वक जाँच-पड़ताल करके सच्चे देव, सच्चे गुरु सच्चे धर्म को मानना ही सम्यक्त्व है । जो इस प्रकार के सम्यक्त्व को धारण करे, वह साधक सम्यक् - दृष्टि या सम्यक्त्वी कहलाता है।
जैनत्व की झाँकी (12)
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