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________________ में आदर योग्य स्थान नहीं देते। भगवान् महावीर के धर्म-संघ में चारों वर्गों का विचित्र समन्वय था, भगवान् महावीर स्वयं एक क्षत्रिय कुमार थे, उनके प्रधान शिष्य गौतम क्रियाकाण्डी ब्राह्मण विद्वान थे, शालिभद्र और धन्ना जैसे श्रेष्ठी (वैश्य) पुत्र भी उनके प्रमुख तपस्वी शिष्यों में थे, तो हरिकेशबल और मेताय जैसे शूद्र और अन्त्यज भी उनके धर्म-संघ में प्रतिष्ठित तपस्वी के रुप में आदर प्राप्त करते थे। आनन्द श्रावक जो स्वयं एक बड़ा किसान था, सद्दाल पुत्र जो एक प्रतिष्ठित कुम्हार था। ये दोनों ही भगवान् के एक ही कक्षा के प्रमुख श्रावक थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि भगवान् महावीर ने उस युग के जातिवाद के बन्धनों को तोड़कर एक महान् धर्म-क्रान्ति का सूत्रपात किया। भगवान् ने अन्त्यज तो क्या, अनार्यो तथा म्लेच्छों तक . को भी दीक्षा लेने का अधिकार दिया है, और अन्त में कैवल्य प्राप्त कर मोक्ष पाने का भी बड़े प्रभावशाली शब्दों में समर्थन किया है। धर्म-शास्त्र पढ़ने-पढ़ाने के विषय में भी, सबके लिए उन्मुक्त द्वार रखने की आज्ञा दी है। इस विषय में किसी के प्रति किसी भी प्रकार की जाति-सम्बन्धी प्रतिबंधकता का होना, उन्हें कभी भी पसन्द नहीं था। जातिवाद का खण्डन करते हुए भगवान् महावीर ने स्पष्ट शब्दों में जातिवाद को घृणित बताया है, और जातिमद से अकड़ने वाले लोगों को खासी लताड़ बताई है। आठ मदों में प्रथम जातिमद के प्रति भगवान् का कारण है। जो मनुष्य जातिमद में आकर ऐंठने लग जाते हैं, वे इस लोक में भी अपना उच्च व्यक्तित्व खो बैठते हैं और परलोक से भी नरक-तिर्यञ्च आदि अघन्य गतियों में घोर यातनाएँ भोगते हैं।' जातिवाद का बहाना लेकर किसी को घृणा की दृष्टि से देखना या अपमानित करना, बड़ा भारी भीषण पाप है ? वास्तव में जिन्हें अस्पृश्य समझना चाहिए, वे तो पाप हैं, दुराचार हैं। अतः घृणा के योग्य भी वे - - - - LA142 Jain Eजैनत्य की प्राकी (174) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001349
Book TitleJainatva ki Zaki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1998
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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