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________________ ही हैं, न कि मनुष्य ! अतः प्रत्येक मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह स्वयं अपने पापों को ही अस्पृश्य समझे और प्रचलित अस्पृश्यता को दूर करने के लिए भरसक प्रयत्न करें। नीच गोत्र क्या है ? कुछ लोग उच्च, गोत्र तथा नीच - गोत्र का हवाला देकर भगवान् महावीर को जन्मतः उच्च-नीचता का समर्थक बतलाने की चेष्टा करते हैं, वे यथार्थ में भूलते हैं। उच्च-नीच गोत्रों का वह भाव नहीं है, जैसा कि कुछ लोग समझे हुए हैं। गोत्र व्यवस्था का यह कोई नियम नहीं है कि वह जन्म से लेकर मृत्यु - पर्यन्त रहे ही, बीच में परिवर्तित न हो । गोत्र - व्यवस्था का सम्बन्ध भी तो अन्ततोगत्वा गुणों से ही है। इसके लिए भगवान् महावीर के कर्म सिद्धान्त का तलस्पर्शी परिशीलन करना चाहिए। बिना इसके यथार्थता का भान होना कठिन नहीं, अति कठिन है । भगवान् महावीर से आत्मिक विकास की तरतमता की दृष्टि से साधक - जीवन के लिए चौदह श्रेणियाँ बतलाई हैं, जिन्हें जैनागम की परिभाषा में गुणस्थान कहते हैं। प्रत्येक जीव, जो मोक्ष प्राप्त करता है, इन चौदह गुणश्रेणियों को उत्तीर्ण करता है। इन श्रेणियों के वर्णन में भगवान् महावीर ने कहा है कि मनुष्य को नीच - गोत्र का उदय प्रथम के चार गुण स्थानों तक ही रहता है, आगे के गुण स्थानों में पहुँचते ही नीच - गोत्र नष्ट हो जाता है और उसके स्थान में उच्च - गोत्र का उदय हो जाता है। पाँचवाँ गुणस्थान सदाचारी गृहस्थ का और छठा साधु का होता है। अतः स्पष्ट है कि आचार शुद्ध होते ही मनुष्य नीच - गोत्र से उच्च-गोत्र वाला बन जाता है। यदि गोत्र का सम्बन्ध नियत रुप से आमरण होता, तो भगवान् महावीर यह गुण-सम्बन्धी व्यवस्था कदापि नहीं देते। अस्तु, गोत्र शब्द के वास्तविक अर्थ की अनभिज्ञता के कारण जन्मतः मृत्युपर्यन्त उच्च-नीचता के शोर मचाने वाले सज्जन अपनी भूल को दूर करें और भगवान् महावीर के उदार विचारों को अनुदार बनाने का दुस्साहस न करें । Jain Education International For Private & Perभगवान महावीर और जातिवाद (175)ary.org
SR No.001349
Book TitleJainatva ki Zaki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1998
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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