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________________ जातिवाद का ताण्डव आज से करीब ढाई हजार वर्ष पहले स्पृश्च-अस्पृश्च के सम्बन्ध में भारत की अब से कहीं अधिक भयंकर स्थिति थी। शूद्रों की छाया तक से घृणा की जाती थी और उनका मुँह देखना भी बड़ा भारी पाप समझा जाता था। उन्हें सार्वजनिक धर्म-स्थानों एवं सभाओं में जाने का अधिकार नहीं था। और तो क्या, जिन रास्तों पर पशु चल सकते हैं, उन पर भी वे नहीं चल सकते थे। वेद आदि धर्म-शास्त्र पढ़ने तो दूर रहे, विचारे सुन भी नहीं सकते थे। यदि किसी अभागे ने राह चलते हुए कहीं भूल से सुन लिया, तो उसी समय धर्म के नाम पर दुहाई मच जाती थी, और धर्म के ठेकेदारों द्वारा उसके कानों में खौलता हुआ सीसा भरवा दिया जाता था। कितना घोर अत्याचार ! बात यह थी कि तब जातिवाद का बोलवाला था, धर्म के नाम पर अधर्म का विष-वृक्ष सींचा जा रहा था। भगवान् महावीर की क्रांति __जैन धर्म स्पृश्यास्पृश्य और जातिवाद की इस समस्या पर प्रारम्भ से ही उदार दृष्टिकोण अपना कर चलता है। अतएव उस युग में भगवान महावीर ने अपने धर्म-संघ में अन्त्यज और अस्पृश्य कहलाने वाले व्यक्तियों को भी वही स्थान दिया, जो ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि उच्च कुलों के लोगों को था। भगवान् महावीर के इस युगान्तरकारी विधान से ब्राह्मणों एवं दूसरे उच्च वर्गों में बड़ी भारी खलबली मची। फलतः उन्होंने इसका यथाशक्य घोर विरोध भी किया। परन्तु भगवान् महावीर आदि से अन्त तक अपने तर्कसंगत मानवीय सिद्धान्त पर अटल रहे। उन्होंने विरोध की तनिक भी परवाह न की। भगवान महावीर की व्याख्यान-सभा में, जिसे समवसरण कहते हैं, आने वाले श्रोताओं के लिए कोई भी भेद-भाव नहीं था। उनके - -- जैनत्व की झांकी (170) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001349
Book TitleJainatva ki Zaki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1998
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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