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उपदेश में जिस प्रकार ब्राह्मण आदि उच्च कुलों के लोग आते-जाते थे, ठीक उसी प्रकार चांडाल आदि भी। बैठने के लिए कुछ पृथक्-पृथक् प्रबन्ध भी नहीं होता था। सबके-सब लोग परस्पर भाई-भाई की तरह मिल-जुल कर बैठ जाया करते थे। किसी को किसी प्रकार का संकोच नहीं होता था। व्याख्यान-सभा का सबसे पहला कठोर, साथ ही मृदुल नियम यह था कि कोई किसी को अलग बैठने के लिए तथा बैठे हुए को उठ जाने के लिए नहीं कह सकता था। पूर्ण साम्यभाव का साम्राज्य था, जिसको जहाँ इच्छा हो, बैठे। कोई किसी को झिड़कने तथा दुत्कारने वाला नही था। क्या मजाल, जो कोई उच्च जाति के अभिमान में आकर कुछ आना-कानी कर सके। यह सब क्यों था ? भगवान् महावीर वस्तुतः दीनबन्धु थे, उन्हें दीनों से प्रेम था। उदारता का सच्चा दर्शन
भगवान् महावीर के जातिवाद सम्बन्धी उदात्त विचारों के निदर्शन की अनेक घटनाएँ जैन-इतिहास में आज भी सुरक्षित है। हम यहाँ विस्तार, में न जाकर केवल एक घटना का ही उल्लेख करेंगे, जो भगवान् महावीर के उदार जीवन की महत्ता का दिव्य चित्र उपस्थित करती है।
__ घटना पोलासपुर की है। वहाँ के सद्दालपुत्र नामक कुम्हार की प्रार्थना पर भगवान् महावीर स्वयं उसकी निजी कुम्भकार-शाला में जाकर ठहरे थे। वहीं पर उसकी मिट्टी के घड़ों का प्रत्यक्ष दृष्टान्त देकर धर्मोपदेश दिया और अपना धर्मानुयायी बनाया। भविष्य में यही कुम्हार भगवान महावीर के दश श्रावकों में प्रमुख श्रावक हुआ एवं संघ में बहुत अधिक आदर की दृष्टि से देखा गया। उपासकदशांग सूत्र में इसके वर्णन का एक स्वतन्त्र अध्याय है। जिज्ञासु यहाँ देख सकते हैं। इस दृष्टान्त से भगवान् महावीर का दलित एवं हीन जाति के लोगों के प्रति प्रेम का पूर्ण परिचय मिल जाता है। बड़े-बड़े राजा-महाराजा, सेठ-साहूकार और ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि की अपेक्षा भगवान् महावीन ने
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भगवान महावीर और जातिवाद (171) For Private & Personal Use Only
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