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________________ जड़स्वरुप न हो सके। आनन्द का अर्थ सुख है, जो कभी दुःख-रुप न हो सके। आत्मा का अपना धर्म यही है। इसके विपरीत संसार में भ्रमण करना, मिथ्या विश्वासों में उलझे रहना, अज्ञान से आवृत रहना, आधि-व्याध आदि का दुःख होना, आत्मा का असली जिन- धर्म नहीं है। यह विभाव है, अधर्म है। आत्मा से भिन्न विजातीय कर्मों के मेल के कारण ही यह सब मिथ्या प्रपंच है, यही कारण है कि संसार में अब आत्माएँ एक समान नहीं हैं। सब भिन्न-भिन्न अवस्थाओं और स्वरुपों में चक्कर काट रही हैं। यदि यह सब आत्मा का अपना स्वरुप होता, तो इतनी भिन्नता क्यों होती? वस्तु का अपना धर्म तो एक ही होता है, वहाँ भेद कैसा ? अस्तु, यह सिद्ध है कि आत्मा की यह वर्तमान अवस्था कर्मों का फल है, और इसी कारण भिन्नता है। जैन धर्म कहता है कि जब आत्मा मोक्ष-दशा में पहुँच जायेगी, तो प्रत्येक आत्मा एक समान हो जाएगी, फलतः वहाँ छोटे-बड़े का, शुद्ध-अशुद्ध का कोई भेद नहीं रहेगा। और मोक्ष का वह शुद्ध स्वरुप ही आत्मा का अपना असली स्वभाव है, धर्म है। ऊपर की पंक्तियों में आत्मा का धर्म जो सत् चित् आनन्द बताया है वही जैन-आगामों की भाषा में सम्यक्-दर्शन, सम्यक्-ज्ञान और सम्यक्-चारित्र कहलाता है। इन्हीं को 'रत्नत्रय' कहते हैं। आत्मा की यही अन्तरंग विभूति है, सम्पत्ति है। जब आत्मा विभाव परिणति को त्याग कर स्वभाव परिणति में आता है, तो 'रत्नत्रय' रुप जो अपना शुद्ध स्वरुप है, उसे ही अपनाता है। अस्तु, आत्मा का सच्चा धर्म यही 'रत्नत्रय है। बाह्याचरण रुप क्रिया-काण्डों में उलझ कर जनता व्यर्थ ही कष्ट पाती है। वह भेद-बुद्धि का मार्ग है, अभेद-बुद्धि का नहीं। निश्चय दृष्टि में तो यही धर्म का शुद्ध स्वरुप है। 000 - - - - - - Jain ETH (168) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001349
Book TitleJainatva ki Zaki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1998
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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