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करने वाले उसी पौराणिक-धर्म के मानने वाले हैं। भगवद्-भक्ति ही पौराणिक-धर्म की विशेषता है।।
और कितने उदाहरण दिये जाएँ ? भिन्न-भिन्न विचारधाराओं में धर्म का स्वरुप भी भिन्न-भिन्न रुप से वर्णन किया गया है। कुछ लोग नहाने में धर्म मानते हैं, कुछ लोग ब्रह्मणों को भोजन कराने में धर्म मानते हैं, कुछ लोग पूजा-पाठ, जप, तिलक-छापा आदि में धर्म मानते हैं। सब लोग धर्म का स्थूल रुप जनता के सामने रख रहे हैं। धर्म के सूक्ष्म रुप का दर्शन वे नहीं कर पाते। वत्थुसहावो धम्मो
जैन धर्म का सूक्ष्म चिन्तन संसार में प्रसिद्ध है। वह वस्तु के बाह्य रुप पर उतना ध्यान नहीं देता, जितना कि उसके सूक्ष्म रुप पर ध्यान देता है। जैन धर्म कहता है-'वत्थुसहावो धम्मो' । वस्तु का निज स्वभाव ही धर्म है। धर्म कोई पृथक् वस्तु नहीं है। वस्तु का जो अपना मूल स्वभाव है, स्वरुप है, वही धर्म है। और जो पर-वस्तु के संयोग से बिगड़ा हुआ स्वभाव है, जिसे दार्शनिक भाषा में विभाव कहते हैं, वही अधर्म है। ___उदाहरण के लिए जल को लिया जा सकता है। जल का मूल स्वभाव क्या है ? शीतल रहना, तरल रहना, स्वच्छ रहना ही जल का मूल स्वभाव है। इसके विपरीत उष्ण होना, जम जाना, मलिन होना असली स्वभाव नहीं है, विभाव है। क्योंकि उष्णता आदि विपरीत धर्म जल में अग्नि आदि दूसरी वस्तुओं के मेल से आते हैं।
अब हमें विचार करना है कि-हम आत्मा हैं, हमारा स्वभाव या धर्म क्या है। जो आत्मा का स्वभाव होगा, वही धर्म सच्चा धर्म होगा। उसी से वास्तविक कल्याण हो सकेगा।
आत्मा का धर्म सत्, चित् और आनन्द है। सत् का अर्थ सत्य है, जो कभी मिथ्या न हो सके। चित् का अर्थ चेतना है, ज्ञान है, जो कभी
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