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धर्म शब्द जितना व्यापक है उतनी ही विभिन्न है उसकी परिभाषाएँ। अतः धर्म की शुद्ध और सही परिभाषा समझना भी कठिन हो गया है।
प्रस्तुत अध्याय में धर्म की यथार्थ परिभाषा पढ़िए।
आत्म-धर्म
'धर्म क्या वस्तु है तथा धर्म किसे कहते हैं'-यह प्रश्न बड़ा गंभीर है। भारतवर्ष के जितने भी मत, पंथ या सम्प्रदाय हैं, सभी ने उक्त प्रश्न का उत्तर देने का प्रयत्न किया है। किसी ने किसी बात में धर्म माना है, तो किसी ने किसी बात में धर्म माना है। सबके मार्ग भिन्न-भिन्न हैं।
धर्म के भिन्न-भिन्न स्वरुप
पुराने मीमांसा सम्प्रदाय के मानने वाले कहते हैं कि यज्ञ करन धर्म है। यज्ञ में अश्व, अज आदि पशुओं का हवन करने से बहुत बड़ा धर्म होता है, और मनुष्य स्वर्ग को पाता है। भगवान् महावीर के समय में इस मत का बड़ा प्रचलन था। भगवान् का विचार-संघर्ष इसी वैदिक-सम्प्रदाय से हुआ था। आज भी देवी-देवताओं के आगे पशु-बलि करने वाले लोग उसी सम्प्रदाय के ध्वंसावशेष हैं।
पौराणिक-धर्म के मानने वाले कहते हैं कि भगवान् की भक्ति करना ही धर्म है। मनुष्य कितना ही पापी क्यों न हो, यदि वह भगवान की शरण स्वीकार कर लेता है, उसका नाम जपता है, तो वह सब पापों से मुक्त हो जाता है। श्रीकृष्ण, राम और शिव आदि की उपासना
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जैनत्व की झाँकी (166) Jain Education International
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