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बहिरात्मा
प्रथम श्रेणी के प्राणी बहिरात्मा हैं। बहिरात्मा का अर्थ है-'बहिर्मुख आत्मा'। जो आत्म संसार के भोग-विलासों में भूले रहते हैं, जिन्हें सत्य और असत्य का कुछ भाव नहीं रहता, जो धर्म और अधर्म का विवेक भी नहीं रखते, वे बहिरात्मा हैं। बहिरात्मा, आत्मा और शरीर को पृथक्-पृथक् नहीं समझता। वह शरीर के नाश को आत्मा का नाश और शरीर के जन्म को आत्मा का जन्म मानता है। यह दशा बहुत बुरी है। यह आत्मा का स्वभाव नहीं, विभाव है। अतः इस दशा को त्याग कर अन्तरात्मा की ओर जाना चाहिए।
अन्तरात्मा
द्वितीय श्रेणी के विकसित आत्मा अन्तरात्मा कहलाते हैं। अन्तरात्मा का अर्थ है-'अन्तर्मुख आत्मा'। जो आत्मा भौतिक सुख के प्रति अरुचि रखते हों सत्य का भेद-भाव समझते हों, धर्म और अधर्म का विवेक रखते हों, वे अन्तरात्मा हैं। अन्तरात्मा, शरीर और आत्मा को पृथक्-पृथक् समझता है। वह शरीर के सुख-दुख से आकुल-व्याकुल नही होता। अहिंसा, सत्य आदि पर विश्वास रखता है और यथाशक्ति आचरण करता है। सम्यक्-दृष्टि, श्रावक, श्राविका और साधु-साध्वी ब अन्तरात्मा हैं। अन्तरात्मा साधक-दशा है। यहाँ आध्यात्मिक जीवन की साधना प्रारम्भ होती है, और विकास पाती है।
परमात्मा
अन्तरात्मा साधना करते-करते जब आध्यात्मिक विकास की सर्वोच्च भूमिका पर पहुँचता है, तब सर्वज्ञ, सर्वदर्शी परमात्मा हो जाता है। वीतराग भगवान् श्री महावीर स्वामी आदि तीर्थंकर इसी भूमिका पर थे। परमात्मा का अर्थ है परम आत्मा। परम पूर्ण रुप से उत्कृष्ट आत्मा। परमात्मा के दो भेद हैं-१. जीवन्मुक्त श्री अरिहन्त भगवान्
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जैनत्व की झाँकी (164) Jain Education International
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