________________
है। आत्मा पकड़ने जैसी चीज नहीं है। सब पदार्थों में वायु को सूक्ष्म कहा जाता है। परन्तु वायु का तो स्पर्श होता है, आत्मा का तो स्पर्श भी नहीं होता। अतएव वह अमूर्त है। रुप, रस आदि जड़ शरीर के धर्म हैं, आत्मा के नहीं।
संसार में आत्मा अनन्त है। अनन्त का अर्थ है, जो गिनती से बाहर हो, जो सीमा से बाहर हो, जो नाप-तौल के बाहर हो। आत्माओं की संख्या और काल की दृष्टि से कभी अन्त नहीं होता, इसलिए अनन्त है। यही कारण है कि अनन्त काल से आत्माएँ मोक्ष में जा रही हैं, फिर भी संसार में आत्माओं का कभी अन्त नहीं आया
और न कभी भविष्य में आएगा। जो अनन्त है, फिर भला अनका अन्त कैसा ? यदि अनन्त का भी कभी अन्त आ जाए, तब तो अनन्त शब्द ही मिथ्या हो जाए।
संसारी और सिद्ध.
आत्मा के दो भेद हैं-'संसारी' और 'सिद्ध' । सिद्धों में भेद का कारण कर्म-मल नहीं रहता है, अतः वहाँ कोई मौलिक भेद नहीं होता। हाँ, संसारी दशा में कर्म का मल लगा रहता है, अतः संसारी जीवों के नरक, तिर्यज्च आदि गति, और एकेन्द्रिय आदि जाति-इस प्रकार भिन्न-भिन्न दृष्टि से अनेक भेद हैं। आत्मा के तीन प्रकार
यहाँ हम व्रत, स्थावर, संज्ञी, असंज्ञी आदि भेदों में न जाकर आत्मा के और ही तीन भेद बताना चाहते हैं
(१) बहिरात्मा, (२) अन्तरात्मा, (३) और परमात्मा।
ये तीन भेद, भावों की अपेक्षा से हैं। जैन धर्म के आध्यात्मिक ग्रन्थों में इनका विस्तृत विवेचन किया गया है, किन्तु यहाँ संक्षेप में ही उनका स्वरुप बतलाते हैं।
Jain Education International
आत्मा और उसका स्वरूप (163 For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org