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जैन-दर्शन में आत्मा का क्या अर्थ है। और उसका स्वरूप क्या है-इस विषय में आध्यात्मिक दृष्टि से विचार किया गया है| इस अध्याय में।
आत्मा और उसका स्वरुप
आत्मा क्या है ? जो सदा अमर रहता है, जिसका कभी नाश नहीं होता, जो नारक, पशु, मनुष्य, और देव-गतियों में नाना रुप पाकर भी कभी अपने अजर-अमर स्वरुप से च्युत नहीं होता, वह आत्मा है। जिस प्रकार पुराना कपड़ा छोड़कर नया पहना जाता है, उसी प्रकार आत्मा भी पुराना शरीर छोड़कर नया शरीर धारण कर लेता है। जन्म-मरण के द्वारा केवल शरीर बदला जाता है, आत्मा का कभी नाश नहीं होता। यह आत्मा न शस्त्र से कटता है, न आग में जलता है, न धूप में सूखता है, न जल में भीगता है, न हवा में उड़ता है। यह सनातन और अचल है।
आत्मा की ज्ञानरुपता
आत्मा ज्ञान-रुप है। हर एक वस्तु को जानना, देखना, मालूम करना, आत्मा का ही धर्म है। जब तक मनुष्य जीवित रहता है अर्थात् शरीर में आत्मा रहता है, तब तक जानता है, देखता है सूंघता है, चलता है, छूता है, सुख-दुख का अनुभव करता है, और जब शरीर में आत्मा नहीं रहती है, तब कुछ भी ज्ञान-शक्ति नहीं रहती। अतः जैन धर्म में आत्मा को ज्ञान स्वरुप कहा है।
आत्मा अमूर्त है। उसमें न रुप है, न रस है, न गंध है, न स्पर्श
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जैनत्व की झांकी (162) Jain Education International
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