________________
.. हाँ, तो जैन धर्म में वही त्यागी आत्मा गुरु माना जाता है, जो धनदौलत का त्यागी हो, मोह और क्षोभ आदि के संसारी प्रपंचों से रहित हो, अहिंसा-सत्य आदि व्रतों का स्वयं आचरण करता हो, और उन्हीं का बिना किसी लोभ-लालच के जन-कन्याण की भावना से उपदेश देता हो। सच्चा गुरु वही है, जो आत्मा से परमात्मा बनने के आदर्श को सामने रख कर अपने विशुद्ध विचार तथा विशुद्ध आचार से उस आदर्श को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील हो।
जैन धर्म में त्याग का महत्व है। भौग-विलासों का त्याग कर आध्यात्मिक साधना करना ही यहाँ श्रेष्ठ जीवन का लक्षण है। यही कारण है कि जैन साधुओं का तपश्चरण की दृष्टि से बड़ा ही कठोर जीवन होता है। जैन साधु कड़ी से कड़ी सरदी पड़ने पर भी आग नहीं तापते। प्यास के मारे कण्ठ सूख जाने पर भी सचित (कच्चा) पानी नहीं पीते। चाहे जीतनी भूख लगी हो पर, कन्द मूल आदि सब्जी नहीं खाते। आग और हरी सब्जी का स्पर्श भी नहीं करते। सूर्य के अस्त होने पर रात में भोजन नहीं करते हैं। और तो क्या, रात में पानी भी नहीं पीते हैं। दूर-दूर तक पैदल चलते हैं, कोई भी सवारी काम में नहीं लाते। माँस-मछली आदि अभक्ष्य नहीं खाते। धूम्रपान नहीं करते। किसी भी शराब आदि नशीनी चीज को काम में नहीं लाते। पूर्ण ब्रह्मचर्य पालते हैं विवाह-शादी नहीं करते। रुपया पैसा या मठ, मन्दिर आदि कुछ भी सम्पत्ति नहीं रखते। पाँच महाव्रत
जैन साधुओं ने पाँच महाव्रत बतलाये हैं, जो प्रत्येक साधु को, चाहे वह छोटा हो या बड़ा अवश्य पालन करने होते हैं(१) अहिंसा :
मन से, वचन से, शरीर से किसी भी चीज की हिंसा न स्वयं करना, न दूसरों से करवाना, न करने वालों का अनुमोदन = समर्थन करना।
% 3D
-
जैनत्व की झाँकी (6) Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org