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(२) सत्य :
मन से, वचन से, शरीर से न स्वयं झूठ न बोलना, न दूसरों से बुलवाना न बोलने वालों का अनुमोदन करना। (३) अचौर्य :
मन से, वचन से, न स्वयं चोरी करना, न दूसरों से करवाना, न करने वालों का अनुमोदन करना। (४) ब्रह्मचर्य :
मन से, वचन से, शरीर से मैथुन = व्यभिचार न स्वयं सेवन करना, न दूसरों से करवाना, न करने वालों का अनुमोदन करना। (५) अपरिग्रह :
मन से, वचन से, शरीर से परिग्रह = धन आदि न स्वयं रखना, न दूसरों से रखवाना, न रखने वालों का अनुमोदन करना।
जैन साधु का जीवन तप और त्याग की सच्ची तस्वीर होता है। इतने कठोर नियमों का पालन हर कोई नहीं कर सकता।
यही कारण है कि जैन साधु संख्या में बहुत थोड़े हैं, जब कि देश में हर तरफ साधुओं की भरमार है। आज छप्पन लाख साधु नामधारियों की फौज भारत के लिए सिरदर्द बन रही है। अतः हर किसी को गुरु नहीं बना लेना चाहिए। कहा है-*गुरु कीजे जान कर, पानी पीजे छान कर। __ जैन धर्म का गुरुत्व केवल साम्प्रदायिक वेशभूषा तथा बाह्य क्रियाकाण्ड में ही सीमित नहीं है। जैन धर्म आध्यात्मिक धर्म है, अतः उसका गुरुत्व भी आध्यात्मिक भाव ही है। बिना किसी देश और काल के बन्धन से, बिना किसी साम्प्रदायिक अभिनिवेश के जो भी आत्मा अहिंसा और सत्य आदि की पूर्ण साधना में संलग्न है, अन्तरंग में
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गुरु(7
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