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________________ २. ईश्वर चेतन है और जीव भी चेतन है। तब दोनों में भेद क्या रहा? भेद केवल इतना ही है कि जीव अपने कर्मो से बँधा है और ईश्वर उन बन्धनों से मुक्त हो चुका है। एक कवि ने इसी बात को अपनी भाषा में यों प्रकट किया है आत्मा परमात्मा में, कर्म का ही भेद है। काट दे यदि कर्म तो, फिर भेद है ना खेद है।। जैन-दर्शन कहता है कि ईश्वर और जीव में विषमता का कारण औपाधिक कर्म है। उसके हट जाने पर विषमता टिक नहीं सकती। अतएव कर्मवाद के अनुसार यह मानने में कोई आपत्ति नहीं कि सभी मुक्त जीव ईश्वर बन जाते हैं। सोने में से मैल निकाल दिया जाए तो फिर सोने के शुद्ध होने में क्या किसी को आपत्ति है ? आत्मा में से कर्म-फल दूर हो जाए तो फिर शुद्ध आत्मा ही परमात्मा बन जाता है। अशुद्ध आत्मा, संसारी जीव है और शुद्ध आत्मा मुक्त जीव है। निष्कर्ष यह निकला कि प्रत्येक जीव कर्म करने में जैसे स्वतन्त्र है वैसे ही कर्म-फल भोगने में भी वह स्वतन्त्र ही रहता है। ईश्वर का वहाँ कोई हस्तक्षेप नहीं होता। और उस हस्तक्षेप की कोई आवश्यकता भी नहीं। कर्मवाद का व्यावहारिक रूप मनुष्य जब किसी कार्य को आरम्भ करता है, तो उसमें कभी-कभी अनेक विध्न और बाधाएं उपस्थित हो जाती हैं। ऐसी स्थिति में मनुष्य का मन चंचल हो जाता है और वह घबड़ा उठता है। इतना ही नहीं, वह किकर्तव्यविमूढ़ बनकर कभी-कभी अपने आस-पास के संगी-साथियों को अपना शत्रु समझने की भूल भी कर बैठता है। फलस्वरूप अन्तरंग कारणों को भूल कर केवल बाह्य दृश्य कारणों से ही जूझने लगता है। - जैनत्व की झांकी (154) Jain Education international For Private &Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.001349
Book TitleJainatva ki Zaki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1998
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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