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________________ ऐसी दशा में मनुष्य को पथ - भ्रष्ट होने से बचा कर सत्पथ कर लाने के लिए किसी सुयोग्य गुरु की बड़ी भारी आवश्यकता है। यह गुरु और कोई नहीं कर्म सिद्धान्त ही हो सकता है। कर्मवाद के अनुसार मनुष्य को यह विचार करना चाहिए कि "जिस अन्तरंग भूमि में विघ्न रूपी विष-वृक्ष अंकुरित और फलित हुआ है, उसका बीज भी उसी भूमि में होना चाहिए। बाहरी शक्ति तो जल और वायु की भाँति मात्र निमित्त कारण हो सकती है। असली तो मनुष्य के अपने अन्तर में ही मिल सकता है, बाहर में नहीं । और वह कारण अपना किया हुआ कर्म ही हो सकता है और कोई नहीं । अस्तु, जैसे कर्म किए हैं वैसा ही तो उसका फल मिलेगा। नीम का वृक्ष लगाकर यदि कोई आम के फल चाहे तो कैसे मिलेंगे ? मैं बाहर के लोगों को व्यर्थ ही दोष देता हूँ। उनका क्या दोष है ? वे तो मेरे अपने कर्मों के अनुसार ही इस प्रतिकूल स्थिति में परिणत हुए हैं। यदि मेरे कर्म अच्छे होते, तो वे भी अच्छे न हो जाते ? जल एक ही है परन्तु वह तमाखू के खेत में कड़वा बन जाता है, तो ईख के खेत में मीठा हो जाता है। जल अच्छा या बुरा नहीं है। अच्छा और बुरा है, ईख और तमाखू । यही बात मेरे और मेरे संगी-साथियों के सम्बन्ध में भी है। मैं अच्छा हूँ, तो सब अच्छे हैं और मैं बुरा हूँ, तो सब बुरे हैं।" मनुष्य को किसी भी काम की सफलता के लिए मानसिक शन्ति की बड़ी आवश्यकता है। और वह इस प्रकार कर्म - सिद्धान्त से ही मिल सकती है। आँधी और तूफान में जैसे हिमालय अटल और अचल रहता है, वैसे ही कर्मवादी मनुष्य अपनी प्रतिकूल परिस्थितियों में भी शान्त तथा स्थिर रह कर अपने जीवन को सुखी और समृद्ध बना सकता है। अतएव कर्मवाद मनुष्य के व्यावहारिक जीवन में बड़ा उपयोगी प्रमाणित होता है। Jain Education International जैन-दर्शन का कर्मवाद (155) For Private & Personal Use Only www.jalnelbrary.org
SR No.001349
Book TitleJainatva ki Zaki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1998
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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