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________________ बिना फल प्रदान करने से असमर्थ है। अतएव कर्मवादियों को मानना चाहिए कि ईश्वर ही प्राणियों को कर्म-फल देता है। २. कर्मवाद का यह सिद्धान्त ठीक नहीं है कि कर्म से छूट कर सभी जीव मुक्त अर्थात् ईश्वर हो जाते हैं। यह मान्यता तो ईश्वर और जीव में कोई अन्तर ही नहीं रहने देती, जो कि अतीव आवश्यक है। जैन-दर्शन ने उक्त आक्षेपों का सुन्दर तथा युक्ति-युक्त समाधान किया है। १. आत्मा जैसा कर्म करता है, कर्म के द्वारा उसे वैसा ही फल मिल जाता है। यह ठीक है कि कर्म स्वयं जड़-रूप है। और बुरे कर्म का फल भी कोई नहीं चाहता, परन्तु यह बात ध्यान में रखने की है चेतन के संसर्ग से कर्म में एक ऐसी शक्ति उत्पन्न हो जाती है कि जिससे वह अच्छे-बुरे कर्मों का फल जीव पर प्रकट करता है। जैनधर्म यह कब कहता है कि धर्म-चेतना के संसर्ग के बिना भी फल देता है ? वह तो यही कहता है कि कर्म-फल में ईश्वर का कोई हाथ नहीं ___कल्पना कीजिए कि एक मनुष्य धूप में खड़ा है और गरम चीज खा रहा है, परन्तु चाहता है कि मुझे प्यास न लगे। यह कैसे हो सकता है ? एक सज्जन मिर्च खा रहे हैं और चाहते हैं कि मुँह न जले। क्या यह सम्भव है ? एक आदमी शराब पीता है और साथ ही चाहता है कि नशा न चढ़े। क्या यह व्यर्थ की कल्पना नहीं है? केवल चाहने और न चाहने-भर से कुछ नहीं होता। जो कर्म किया जाता है उसका फल भी भोगना पड़ता है। इसी विचारधारा को लेकर जैन-दर्शन कहता है कि जीव स्वयं कर्म करता है और स्वयं ही उसका फल भी भोगता है। शराब का नशा चढ़ाने के लिए शराब और शराबी के अतिरिक्त क्या किसी तीसरी शक्ति के रूप में ईश्वर आदि की भी आवश्यकता होती है? Jain Education International जैन-दर्शन का कर्मवाद (153) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001349
Book TitleJainatva ki Zaki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1998
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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