________________
"रे जीव साहस आदरो, मत थावो तुम दीन।
सुख-दुख सम्पद आपदा, पूर्व कर्म अधीन।' यद्यपि न्याय, वेदान्त आदि वैदिक दर्शनों तथा उत्तरकालीन पौराणिक ग्रन्थों में ईश्वर को सृष्टि का कर्ता और कर्म-फल का दाता माना गया है। परन्तु जैन-सृष्टि-कर्ता और कर्म-फल-दाता के रूप में ईश्वर की कल्पना ही नहीं करता। जैन धर्म का कहना है कि जीव जैसे कर्म करने में स्वतन्त्र है, वैसे ही वह उसके फल भोगने में भी स्वतन्त्र है। मकड़ी खुद ही अपना जाला बनाती है और खुद ही उसमें फँस जाती है।
आत्मा का कर्मकर्तृव्य स्पष्ट करते हुए एक विद्वान् आचार्य ने क्या ही अच्छा कहा है
"स्वयं कर्म करोत्यात्मा, स्वयं तत्भलमश्नुते।
स्वयं भ्रमति संसार, स्वयं तस्माद् विमुच्यते।" अर्थात यह आत्मा स्वयं ही कर्म का करने वाला है और स्वयं ही उसका फल भोगने वाला भी है। स्वयं ही संसार में परिभ्रमण करता है, और एक दिन धर्म-साधना के द्वारा स्वयं ही संसार-बन्धन से मुक्ति भी प्राप्त कर लेता है।
आक्षेप और समाधान
ईश्वरवादियों की ओर से कर्मवाद पर कुछ आक्षेप भी किये गये हैं, उनमें से कुछ मुख्य-मुख्य आक्षेप जान लेने आवश्यक हैं। वे निम्न
१. प्रत्येक आत्मा अच्छे कर्म के साथ बुरे कर्म भी करता है। परन्तु बुरे कर्म का फल कोई नहीं चाहता है। चोर, चोरी तो करता है, पर वह यह कब चाहता है कि मैं पकड़ा जाऊँ ? दूसरी बात यह है कि कर्म स्वयं जड़-रूप से वे किसी भी ईश्वरीय चेतना की प्रेरणा के
जैनत्व की झांकी (152) Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org