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________________ २६ जैन दर्शन ने जब 'सृष्टिकर्ता' और 'कर्मफल दाता के रूप में ईश्वर का निराकरण किया तो प्रश्न आया कि प्राणी को सुख-दुख देने वाला कौन है और यह सृष्टि यदि अपने नियत क्रम से चल रही है, तो उसका चालक कौन है। जैन- दर्शन ने इस तर्क का उत्तर 'कर्मवाद' के सिद्धान्त से दिया है। दर्शन की इन रोचक मान्यताओं की चर्चा पढ़िए प्रस्तुत निबन्ध में समस्याएँ भी हैं और समाधान भी है। जैन- दर्शन का कर्मवाद दार्शनिक वादों की दुनिया में कर्मवाद भी अपना एक विशिष्ट महत्व रखता है। जैन-धर्म की सैद्धान्तिक विचारधारा में तो कर्मवाद का अपना एक विशेष स्थान रहा है, बल्कि यह कहना, अधिक उपयुक्त होगा कि कर्मवाद के मर्म को समझे बिना जैन - संस्कृति और जैन धर्म का यथार्थ ज्ञान हो ही नहीं सकता। जैन-धर्म तथा जैन - संस्कृति का भव्य प्रासाद कर्मवाद की गहरी एवं सुदृढ़ नीव पर ही टिका हुआ है। अतः आइए, कर्मवाद के सम्बन्ध में कुछ मुख्य-मुख्य बातें समझ लें । कर्मवाद की धारणा है कि संसारी आत्माओं की सुख-दुख, संपत्ति - विपत्ति और ऊँच-नीच आदि जितनी भी विभिन्न अवस्थाएँ दृष्टिगोचर होती हैं, उन सभी में काल एवं स्वभाव आदि की तरह कर्म भी एक प्रबल कारण है। जैन-दर्शन जीवों की इन विभिन्न, परिणतियों में ईश्वर को कारण न मान कर, कर्म को ही कारण मानता है । अध्यात्म-शास्त्र के मर्म स्पर्शी सन्त देवचन्द्र ने कहा है Jain Education International जैन-दर्शन का कर्मवाद (151) www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001349
Book TitleJainatva ki Zaki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1998
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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