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रटाते हुए वेश्याएँ तर जाती हों और मरते समय मोह-वश अपने पुत्र नारायण को पुकारने भर से सर्वनियन्ता नारायण के दूत दौड़ते हों, वहाँ भला जीवन की नैतिकता और सदाचरण की महत्ता का क्या मूल्य रह जाता है। सस्ती भक्ति, धर्माचरण के महत्व को गिरा देती है । और इस प्रकार भक्ति से पल्लवित हुआ अवतारवाद का सिद्धान्त जनता में 'शरणवाद' के रुप में परिवर्तित हो जाता है। पाप करो, और उसके फल से बचने के लिए प्रभु की शरण में चले जाओ ।
अवतारवाद के आदर्श केवल आदर्श मात्र रह जाने हैं, वे जनता के द्वारा अपनाने योग्य यथार्थता के रुप में भी कभी नहीं उतर पाते । अतएव जब लोग राम, कृष्ण आदि किसी अवतारी महापुरुष की जीवन लीला सुनते हैं, तो किसी ऊँचे आदर्श की बात आने पर झट-पट कह उठते हैं, कि "आह, क्या कहना ! अजी भगवान थे, भगवान् ! भगवान् के अतिरिक्त और कौन दूसरा यह काम कर सकता है।" इस प्रकार हमारे प्राचीन महापुरुषों के अहिंसा, दया, दान, सत्य, परोपकार आदि जितने भी श्रेष्ठ एवं महान् गुण है, उन सबसे अवतारवादी लोग मुँह मोड़ लेते हैं, अपने को साफ बचा लेते हैं। अवतारवादियों के यहाँ जो कुछ भी है, सब प्रभु की लीला है। अब केवल सुनने-भर के लिए है, आचरण करने के लिए नहीं । भला सर्वशक्तिमान ईश्वर के कामों को मनुष्य कहीं अपने आचरण में
उतार सकता है ? अवतारों का चरित्र श्रव्य है या कर्त्तव्य ?
कुछ प्रसंग तो ऐसे भी आते हैं, जो केवल दोषों को ढकने का ही प्रयत्न करते हैं। जब कोई विचारक, किसी भी अवतार के रुप में माने जाने वाले व्यक्ति का जीवन-चरित्र पढ़ता है, और उनमें कोई नैतिक जीवन की भूल पाता है, तो विचारक होने के नाते वह उसकी आलोचना करता है, अच्छे को अच्छा और बुरे को बुरा कहता है। किन्तु अवतारवादी लोग विचारक का वह अधिकार छीन लेते हैं।
जैनत्व की झाँकी (146)
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