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अपना भविष्य उसके अपने हाथ में नहीं है, वह एक मात्र जगन्नियंता ईश्वर के हाथ में है। वह जो चाहे कर सकता है। मनुष्य उसके हाथ की कठपुतली है। पुराणों की भाषा में वह 'कर्तुमकर्तुमन्मथाकर्तुम' के रुप में सर्वतन्त्र स्वतन्त्र है। विश्व का सर्वाधिकारी सम्राट है। "भ्रामयन सर्वभूतानि वन्त्रारुढानि मायया। वह सब जगत को अपनी माया से घुमा रहा है, जैसे कुम्हार चाक पर रखे मुत्पिण्ड को। - मनुष्य कितनी ही ऊँची साधना करे, कितना ही सत्य तथा अहिंसा के ऊँचे शिखरों पर विचरण करे, परन्तु वह ईश्वर कभी नहीं बन सकता। मनुष्य के विकास की कुछ सीमा है, और वह सीमा ईश्वर की इच्छा के नीचे है। मनुष्य को चाहिए कि वह उसकी कृपा का भिखारी बन कर रहे, इसलिए तो श्रमणेतर संस्कृति का ईश्वर कहता है-मनुष्य ! तू मेरी शरण में आ, मेरा स्मरण कर । तू क्यों डरता है ? मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूंगा, शोक मत कर। हाँ, मुझे अपना स्वामी मान और अपने को मेरा दास ! बस इतनी-सी शर्त पूरी करनी होगी, और कुछ नहीं। अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोचयिष्यामि मा शुचः। अवतारवाद या शरणवाद
कोई भी तटस्थ विचारक इस बात पर विचार कर सकता है कि यह मान्यता मानव-समाज के नैतिक बल को घटाती है, या नहीं। कोई भी समाज इस प्रकार की विचार-परम्परा का प्रचार कर अपने आचरण के स्तर को ऊँचा नहीं कर सकता। यही कारण है कि . भारतवर्ष की जनता पर नैतिक स्तर बराबर नीचे गिरता जा रहा है। लोग पाप से नही बचना चाहते, पाप के फल से बचना चाहते हैं। और पाप के फल से बचने के लिए भी किसी ऊँची कठोर साधना की आवश्यकता नहीं है, केवल ईश्वर या ईश्वर के किसी अवतार की शरण में पहुँच जाना ही इनकी दृष्टि में सबसे बड़ी साधना है, बस इसी से बेड़ा पार है। जहाँ मात्र अपने मनोरंजन के लिए तोते को रामनाम
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