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________________ ऐसे प्रसंगों पर वे प्रायः कहा करते हैं-"अरे तुम क्या जानो ? यह सब उस महाप्रभु की माया है। वह जो कुछ भी करता है, अच्छा ही करता है। जिसे हम आज बुराई समझते हैं, उसमें भी कोई-न-कोई भलाई ही रही होगी। हमें श्रद्धा रखनी चाहिए, ईश्वर का अपवाद नहीं करना चाहिए। इस प्रकार अवतारवादी लोग श्रद्धा की दुहाई देकर स्वतन्त्र चिन्तन एवं गुणदोष के परीक्षण का द्वार सहस बन्द कर देते हैं। श्रीमदभागवत के दशम स्कन्ध में जब राजा परीक्षित ने श्री कृष्ण का गोपियों के साथ उन्मुक्त व्यवहार का वर्णन सुना, तो वह चौंक उठा। भगवान् होकर इस प्रकार अमर्यादित आचरण ! कुछ समझ में नहीं आया। उस समय शुकदेवजी ने, कैसा अनोखा तर्क उपस्थित किया है ! वे कहते हैं-'राजन् ! महापुरुषों के जीवन सुनने के लिए हैं, आचरण करने के लिए नहीं। कोई भी विचारक इस समाधान-पद्धति से सन्तुष्ट नहीं हो सकता। वे महापुरुष हमारे जीवन-निर्माण के लिए उपयोगी कैसे हो सकते हैं, जिनके जीवन-वृत केवल सुनने के लिए हों, विधि-निषेध के रुप में अपनाने के लिए नहीं ? क्या इनके जीवन-चरित्रों से फलित होने वाले आदर्शों को अपनाने के लिए अवतारवादी साहित्यकार जनता को कुछ गहरी प्रेरणा देते हैं ? इन सब प्रश्नों का उत्तर यदि ईमानदारी से दिया जाए, तो इस अवतारवाद की विचार-परम्परा में एकमात्र नकार के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। 'अवतरण' नहीं 'उत्तरण' श्रमण-संस्कृति का आदर्श, ईश्वर का अवतार न होकर मनुष्य का उतार है। यहाँ ईश्वर का मानव-रुप में अवतरण नही माना जाता, प्रस्तुत मानव का ईश्वर-रुप में उत्तरण माना जाता है। अवतरण का अर्थ है-नीचे की ओर आना और उत्तरण का अर्थ है-ऊपर की ओर जाना। हाँ तो, श्रमण-संस्कृति में मनुष्य से बढ़कर और कोई दूसरा श्रेष्ठ प्राणी नहीं है। मनुष्य केवल हाड़-माँस का चलता-फिरता पिंजरा नहीं है, प्रत्युत वह अनन्त-अनन्त शक्तियों का पुँज है। वह देवताओं - - - - - - - अवतारवाद या उत्तारवाद (147) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001349
Book TitleJainatva ki Zaki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1998
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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