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ही नहीं, तो फिर कुन कहा कैसे ? शब्द बोलने के लिए तो मुँह की आवश्यकता है। दूसरी ओर जगत् के रुप में तब्दील होने वाले परमाणु तो जड़े हैं, बिना कान के हैं। उन्होंने खुदा की आज्ञा को सुना भी कैसे? और यदि वह बोल सकता है, तो अब क्यों नहीं बोलता है ? आज प्रार्थना करते-करते लोग पागल हुए जा रहे हैं और वह बोलता ही नहीं। यदि वह बोल पड़े तो आज ही हजारों काफिर मोमिन हो जाएँ ! कितना बड़ा धर्म और परोपकार का नाम होगा? क्या यह सब खुदा को पसन्द नहीं ? दुःखमय संसार का निर्माता, दयालु ईश्वर है ? ___ वैदिक-धर्म की शाखा वाले सनातनी और आर्य समाजी बन्धु मानते हैं कि ईश्वर ने इच्छा मात्र से जगत् का निर्माण कर दिया। परमात्मा को ज्यों ही इच्छा पैदा हुई कि दुनियाँ तैयार हो, त्यों ही भूमि और आकाश, सूर्य और चन्द्र, नदी और समुद्र आदि बनकर तैयार हो
गए।
जैन-दर्शन इस पर भी तर्क करता है कि ईश्वर के मन तो हैं नहीं, फिर वह इच्छा कैसे कर सकता है ? इच्छा किसी प्रयोजन के लिए होती है। जगत् के बनाने में, ईश्वर का क्या प्रयोजन है ? ईश्वर दयालु है, परमपिता है। वह सिंह, सर्प आदि दृष्टि हिंसक पशुओं से भरे हुए, रोग, शोक, द्रोह एवं दुर्व्यसन आदि से घिरे हुए और चोरी, व्यभिचार, लूट, हत्या, आदि अपराधों से व्याप्त दुःख-पूर्ण संसार के निर्माण की इच्छा कैसे कर सकता है ? आप कहेंगे-'यह ईश्वर की लीला है। भला यह लीला कैसी है ? विचारे संसारी जीव रोग-शोक आदि से भयंकर त्रास पाएँ, अकाल और बाढ़ आदि के समय नकर जैसा हाहाकार मच जाए ! और वह ईश्वर, यह सब अपनी लीला करे। कोई भी भला आदमी इस लीला को देखने के लिए तैयार नहीं हो सकता ! यदि परमात्मा दयालु होकर संसार का निर्माण करता, तो वह
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