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________________ नवीन रूप में सर्वथा उत्पन्न ही होती है। आधुनिक पदार्थ - विज्ञान भी इसी सिद्धान्त का समर्थन करता है। वह कहता है कि - "प्रत्येक वस्तु मूल प्रकृति में रुप में ध्रुव है- स्थित है, और उससे उत्पन्न होने वाले अपराध पर दृश्यमान पदार्थ उसके भिन्न-भिन्न रुपान्तर मात्र है । " नित्यानित्यवाद की मूल दृष्टि हाँ, तो उपर्युक्त उत्पत्ति, स्थिति और विनाश- इन तीन गुणों में से जो मूल वस्तु सदा स्थित रहती है, उसे जैन-दर्शन में द्रव्य कहते हैं, और जो उसकी व्यवस्था उत्पन्न एवं विनष्ट होती रहती है, उसे पर्याय कहते हैं। कंगन से हार बनने वाले उदाहरण में-सोना द्रव्य है, और कंगन तथा हार उसके पर्याय हैं। द्रव्य की अपेक्षा से हर एक वस्तु नित्य है और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य हैं। इस प्रकार प्रत्येक पदार्थ कोन एकान्त - नित्य और न एकान्त- अनित्य, अपितु नित्यानित्य उभय रुप से मानना ही अनेकान्तवाद है । अस्ति नास्तिवाद अनेकान्त सिद्धान्त सत् और असत् के सम्बन्ध में भी उभयवर्ती दृष्टि रखता है। कितने ही सम्प्रदाय कहते हैं- 'वस्तु सर्वथा सत् है ।' इसके विपरीत दूसरे सम्प्रदाय कहते हैं- 'वस्तु सर्वथा असत् है ।' दोनों ओर से संघर्ष होता है, वाग्युद्ध होता है, अनेकान्तवाद ही इस संघ का सही समाधान कर सकता है। । अनेकान्तवाद कहता है कि प्रत्येक वस्तु सत् भी है और असत् भी । अर्थात् प्रत्येक पदार्थ है भी और नहीं भी । अपने निजस्वरुप में है और दूसरे के परस्वरुप से नहीं हैं। अपने पुत्र की अपेक्षा से पिता पितारुप से सत् है, और पर - पुत्र की अपेक्षा से पिता पितारुप से असत् है । यदि वह परपुत्र की अपेक्षा से भी पिता ही है, तो संसार का पिता हो जाएगा, और असम्भव है। आपके सामने एक कुम्हार है। उसे कोई सुनार कहता है। अब यदि वह यह कहे कि मैं तो कुम्हार हूँ, सुनार नहीं हूँ, क्या अनुचित Jain (132 की झाँकी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001349
Book TitleJainatva ki Zaki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1998
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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