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वस्तु में परस्पर विरोधी धर्मों की स्थिति कैसे हो सकती है। इसे समझने के लिये एक उदाहरण लीजिए। एक सुनार के पास सोने का कंगन है। वह उसे तोड़कर, गलाकर हार बना लेता है। इससे यह स्पष्ट हो गया कि कंगन का नाश होकर हार की उत्पत्ति हो गई। परन्तु इससे आप यह नहीं कह सकते कि कंगन बिल्कुल ही नया बन गया। क्योंकि कंगन और हार में जो सोने के रुप में पुद्गल स्वरुप मूल तत्व है, वह तो ज्यों का त्यों अपनी उसी पहले की स्थिति में विद्यमान है। विनाश और उत्पत्ति केवल आकार की ही हुई है। पुराने आकार का नाश हुआ है और नये आकार की उत्पत्ति हुई है। इस उदाहरण के द्वारा सोने के कंगन के आकार का नाश, हार के आकार की उत्पत्ति, और सोने की उभयत्र ध्रुवस्थिति-ये तीनों धर्म भलीभाँति सिद्ध हो जाते हैं।
इस प्रकार प्रत्येक वस्तु में उत्पत्ति, स्थिति और विनाश ये तीनों गुण स्वभावः रहते हैं। कोई भी वस्तु जब नष्ट हो जाती है, तो इससे यह न समझना चाहिए कि उसके मूल तत्व ही नष्ट हो गए। उत्पत्ति और विनाश तो उसके स्थूल रुप के होते हैं। स्थूल वस्तु के नष्ट हो जाने पर भी उसके सूक्ष्म परमाणु तो सदा काल स्थित ही रहते हैं। वे सूक्ष्म परमाणु, दूसरी वस्तु के साथ मिलकर नवीन रुपों का निर्माण करते हैं। वैशाख और ज्येष्ठ के महीने में सूर्य की किरणों से जब तालाब आदि का पानी सूख जाता है, तब यह समझना भूल है कि पानी का सर्वथा अभाव हो गया, उसका अस्तित्व पूर्णतया नष्ट हो गया है। पानी चाहे अब भाप या गैस आदि किसी भी रूप में क्यों न हो, पर वह विद्यमान अवश्य है। यह हो सकता है कि उसका वह सूक्ष्म रुप हमें दिखाई न दे, परन्तु यह तो कदापि सम्भव नहीं कि उसकी सत्ता ही नष्ट हो जाए, सर्वथा अभाव ही हो जाए। अतएव यह सिद्धान्त अटल है कि न तो कोई वस्तु मूल रुप से अपना अस्तित्व खोकर सर्वथा नष्ट ही होती है और न शून्य-रुप अभाव से भावस्वरुप होकर
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