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शुरु किया। किसी ने पूँछ पकड़ी, तो किसी ने सूँढ़, किसी ने कान पकड़ा तो किसी ने दाँत, किसी ने पैर पकड़ा तो किसी ने पेट । एक-एक अंग को पकड़ कर हर एक ने समझ लिया कि मैंने हाथी देख लिया हैं। अपने स्थान पर आये तो हाथी के सम्बन्ध में चर्चा छिड़ी ।
प्रथम पूँछ पकड़ने वाले ने कहा- " भई हाथी तो मैंने देख लिया, बिल्कुल मोटे रस्से जैसा था । "
सूँड़ पकड़ने वाले दूसरे अन्धे ने कहा- "झूठ, बिल्कुल झूठ ! हाथी कहीं रस्से- जैसा होता है। अरे, हाथी तो मूसल जैसा था।"
तीसरा कान पकड़ने वाला अन्धा बोला- "आँखें काम नहीं देती तो क्या हुआ, हाथ तो धोखा नहीं दे सकते। मैंने हाथी को टटोल कर देखा था, वह ठोक छाज (सूप) जैसा था । "
चौथे दाँत पकड़ने वाले सूरदास बोले - "अरे तुम सब झूठी गप्पें मारते हो ? हाथी तो कुश यानी कुदाल जैसा था । "
पाँचवें पैर पकड़ने वाले महाशय ने कहा- "अरे कुछ भगवान का भी ख्याल करो । नाहक झूठ क्यों बोलते हो ? हाथी तो खम्भे जैसा था । मैंने खूब टटोल-टटोल कर देखा है।"
छठे पेट पकड़ने वाले सूरदास गरम उठे - " अरे क्यों वकवाश करते हो ? पहले पाप किए तो अन्धे हुए, अब व्यर्थ को झूठ बोलकर क्यों उन पापों की जड़ों में पानी सींचते हो ? हाथी तो भाई मैं भी देखकर आया हूँ। वह अनाज भरने की कोठी जैसा है। *
अब क्या था, आपस में वाग्ययुद्ध ठन गया । सब एक दूसरे को झुठलाने लगे और गाली गलौज करने लगे ।
सौभाग्य से वहाँ एक आँखों वाले सज्जन आ गए। अन्धों की तू-तू मैं-मैं सुनकर उन्हें हँसी आ गई। पर, दूसरे ही क्षण उनका चेहरा गम्भीर हो गया। उन्होंने सोचा- "भूल हो जाना अपराध नहीं है, किन्त किसी की भूल पर हँसना अपराध है।" उनका हृदय करुर्णाद्र हो गया। उन्होंने कहा- "बन्धुओं, क्यों झगडते हो ? जरा मेरी भी बात
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