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________________ अनेकान्त और स्याद्वाद अनेकान्त और स्याद्वाद एक ही सिद्धान्त के दो पहलू हैं, जैसे एक सिक्के के दो बाजू। इसी कारण सर्वसाधारण दोनों वादों को एक ही समझ लेते हैं। परन्तु ऊपर से एक होते हुए भी दोनों में मूलतः भेद है। अनेकान्तवाद वस्तुदर्शन की विचारपद्धति है, तो स्याद्वाद उसकी भाषा पद्धति । अनेकान्त दृष्टि को भाषा में उतारना स्याद्वाद है। इसका अर्थ हुआ कि वस्तुस्वरुप के चिन्तन करने की विशुद्ध और निर्दोष शैली अनेकान्तवाद है, और उस चिन्तन तथा विचार को अर्थात् वस्तुगत अनन्तवाद धर्मों के मूल में रही हुई विभिन्न अपेक्षाओं को दूसरों के लिये निरुपण करना, उनका मर्मोद्घाटन करना ही वस्तुतः स्याद्वाद है। स्याद्वाद को 'कथंचित्वाद' भी कहते हैं। वस्तु अनन्त धर्मात्मक है जैन धर्म की मान्यता है कि प्रत्येक पदार्थ, चाहे वह छोटा सा रज कण हो, चाहे महान् हिमालय, अनन्त धर्मों का समूह है। धर्म का अर्थ, गुण विशेषता है। उदाहरण के लिए आप फल को ले लीजिए। फल में रुप भी है, रस भी है, गन्ध भी है, स्पर्श भी है, आकार भी है, भूख बुझाने की शक्ति है, अनेक रोगों को दूर करने की शक्ति और अनेक रोगों को पैदा करने की शक्ति भी है। कहाँ तक गिनाएँ ? हमारी वृद्धि बहुत सीमित है, अतः हम वस्तु के सब अनन्त धर्मों को बिना अनन्त ज्ञान हुए नहीं जान सकते। परन्तु स्पष्टतः प्रतीयमान बहुत से धर्मों को तो अपने बुद्धि बल के अनुसार जान ही सकते हैं। हाँ, तो पदार्थ को केवल एक पहलू से, केवल एक धर्म से जानने का या कहने का आग्रह मत कीजिए। प्रत्येक पदार्थ को पृथक्-पृथक् पहलुओं से देखिए और कहिए। इसी का नाम अनेकान्तवाद है। अनेकान्तवाद हमारे दृष्टिकोण को विस्तृत करता है। हमारी विचारधारा को पूर्णता की ओर ले जाता है। जैनत्व की प्रॉकी (124) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001349
Book TitleJainatva ki Zaki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1998
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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