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५. नियतिवाद
नियतिवाद का दर्शन जरा गम्भीर है। प्रकृति के अटल नियमों को नियति कहते हैं। नियतिवाद का कहना है कि-संसार में जितने भी कार्य होते हैं, सब नियति के अधीन होते हैं। सूर्य पूर्व में ही उदय होता है, पश्चिम में क्यों नहीं ? कमल जल में ही उत्पन्न हो सकता है, शिला पर क्यों नहीं ? पक्षी आकाश में उड़ सकते हैं, गधे घोड़े क्यों नहीं ? हंस श्वेत क्यों है ? पशु के चार पैर होते हैं, मनुष्य के दो ही क्यों हैं ? अग्नि की ज्वाला सबसे ही ऊपर को क्यों जाती है ? इन सब प्रश्नों का उत्तर केवल यही है कि प्रकृति, का जो निमय है, वह अन्यथा नहीं हो सकता। यदि वह अन्यथा होने लगे तो फिर संसार में प्रलय ही हो जाय। सूर्य पश्चिम में उगने लगे, अग्नि शीतल हो जाए गधे घोड़े आकाश में उड़ने लगे, तो फिर संसार में कोई व्यवस्था ही न रहे। नियति के अटल सिद्धांत के समक्ष अन्य सब सिद्धान्त तुच्छ हैं।
कोई भी व्यक्ति प्रकृति के अटल नियमों के प्रतिकूल नहीं जा सकता । अतः नियति ही सबसे महान है। कुछ आचार्य नियति का अर्थ होनहार भी करते हैं। जो होनहार हैं, वह होकर रहती है, उसे कोई टाल नहीं सकता।
आपने देखा कि उपर्युक्त पाँचों वाद किस प्रकार अपने-अपने विचारों की खींचतान करते हुए दूसरे विचारों का खण्डन करते हैं। इस खण्डन मण्डन के कारण साधारण जनता में भाँतियाँ उत्पन्न हो गई है। वह सत्य के मूल मर्म को समझने में असमर्थ हैं। भगवान महावीर ने विचारों के इस संघर्ष को बड़ी अच्छी तरह सुलझाया है। संसार के सामने उन्होंने वह सत्य प्रकट किया जो किसी का खण्डन भी नहीं करता, अपितु सबका समन्वय करके जीवन-निर्माण के लिए समन्वय आदर्श प्रस्तुत करता है।
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जैनत्व की झांकी (120)
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