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________________ राग और द्वेष ही असली शत्रु क्यों हैं ? इसलिए शत्रु हैं कि ये हमें अनेक प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक दुःख देते हैं, हमें वासना का दास बनाये रखते हैं। हमारा नैतिक पतन करते हैं, हमारी आत्मा की आध्यात्मिक उन्नति नहीं होने देते । राग के कारण माया और लोभ उत्पन्न होते हैं और द्वेष के कारण क्रोध, तथा मान उत्पन्न होते हैं। अतः क्रोध मान (गर्व), माया ( कपट) और लोभ को जीतने वाला ही सच्चा 'जिन' है । 'जिन' के विभिन्न नाम 'जिन' राग और द्वेष से बिल्कुल रहित होते हैं, इसीलिए उनका एक नाम 'वीतराग' भी है, चूँकि ये राग और द्वेष रुपी असली शत्रुओं का हनन अर्थात् नाश करते हैं, इसलिए ये 'अरिहन्त' भी कहलाते हैं, अरि शत्रु हन्त = नाश करने वाला । 'जिन को अर्हत्' भी कहते हैं । अर्हत् का क्या अर्थ है ? अर्हत् का अर्थ है - योग्य । किस बात के योग्य ? पूजा करने के योग्य । महापुरुष राग-द्वेष को जीत कर 'जिन' हो जाते हैं। अतः वे संसार के पूजने योग्य हो जाते हैं। पूजा का विशुद्ध अर्थ भक्ति है। अतः जो महापुरुष राग-द्वेष को जीतने के कारण - संसार के लिए पूजा यानी भक्ति करने के योग्य हो आते हैं, वे अर्हत् कहलाते हैं। भक्ति का अर्थ बाहर में कहीं, फल, फूल, चन्दन या प्रसाद चढ़ाना आदि नहीं है । भक्ति का अर्थ है- बिना किसी स्वार्थ के दिव्य आत्माओं का सम्मान करना उनके प्रति श्रद्धा रखना और उनके बताये हुए सत्पथ = पर चलना । जिन को 'भगवान भी कहते हैं । भगवान् का क्या अर्थ है ? भगवान् का अर्थ है - ज्ञानवाला । राग और द्वेष को पूर्ण रुप से नष्ट करने के बाद केवल ज्ञान उत्पन्न हो जाता है । केवल ज्ञान के द्वारा 1 जिन भगवान् विश्व के अतीत, अनागत और वर्तमान सब रहस्यों को सूर्य - प्रकाश के समान स्पष्ट रुप से जान लेते हैं। जैनत्व की झाँकी (2) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001349
Book TitleJainatva ki Zaki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1998
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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