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________________ नास्तिक कौन ? वैदिक-सम्प्रदाय में मीमांसा, सांख्य और वैशेषिक आरिद दर्शन - कट्टर निरीश्वरवादी दर्शन हैं। जगत्कर्ता तो क्या, ईश्वर का अस्तित्व तक नहीं स्वीकार करते। फिर भी वे आस्तिक हैं। और जैन-धर्म अपनी परिभाषा के अनुसार परमात्मा को मानता हुआ भी नास्तिक है। यह केवल अपने मत के प्रति मिथ्या राग और दूसरे धर्म के प्रति धर्म के प्रति मिथ्या द्वेष नहीं तो क्या है ? आज के बुद्धिवादी युग में ऐसी बातों का कोई महत्व नहीं है। शब्दों के वास्तविक अर्थ का निर्णय व्याकरण से होता है। शब्दों के सम्बन्ध में व्याकरण ही विद्वानों को मान्य होता है, अपनी मत कल्पना नहीं। आस्तिक और नास्तिक शब्द संस्कृत भाषा के हैं । अतः आइए, किसी प्रसिद्ध महर्षि पाणिनि के व्याकरण को देखें । यह व्याकरण जैन-सम्प्रदाय का नहीं, वैदिक - सम्प्रदाय का है । महर्षि पाणिनि के द्वारा रचित व्याकरण के अष्टाध्यायी नामक ग्रन्थ के चौथे अध्याय के चौथे पद का साठवाँ सूत्र हैअस्ति नास्ति दिष्टं मतिः ४।४ ।६० भट्टी जी दीक्षित ने अपनी 'सिद्धान्त कौमुदी' में इसका अर्थ किया है स "अस्ति पर लोक इत्येवं मतिर्यस्य स आस्तिकः नास्तीति मतिर्यस्य नास्तिकः । " इसका हिन्दी अर्थ यह है कि जो परलोक को मानता है वह आस्तिक है । और जो परलोक को नहीं मानता है, वह नास्तिक है।" जब कोई भी विचारक देख सकता है कि व्याकरण क्या कहता है और हमारे ये कुछ पड़ौसी मित्र क्या कहते हैं। जैन दर्शन आत्मा को मानता है, परमात्मा को मानता है, आत्मा की अनन्त शक्तियों में विश्वास करता है। हर आत्मा को परमात्मा बनने का अधिकार देता है। वह परलोक को मानता है पुनर्जन्म को मानता है, पाप-पुण्य को जैनत्व की झांकी (114) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001349
Book TitleJainatva ki Zaki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1998
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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