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कर्मफल हो, वह अजर, अमर सिद्ध, बुद्धि, मुक्त आत्मा परमात्मा है। जैन-धर्म इस प्रकार के वीतराग परमात्मा को मानता है । वह प्रत्येक आत्मा में इसी परम - प्रकाश को छिपा हुआ देखता है और कहता है कि हर कोई साधक वीतराग भाव की उपासना के द्वारा परमात्मा का पद पा सकता है। अब बताइए, जैन धर्म परमात्मा को कैसे नहीं मानता ।
हमारे वैदिक धर्मावलम्बी मित्र कह सकते हैं कि परमात्मा का जैसा स्वरुप हम मानते हैं, वैसा जैन-धर्म नहीं मानता, इसलिए नास्तिक है।' यह तर्क नही मताग्रह है। जिन्हें वे आस्तिक कहते हैं, वे भी तो परमात्मा के स्वरुप के सम्बन्ध में कहाँ एकमत हैं ? मुसलमान खुदा का स्वरुप कुछ और ही बताते हैं, ईसाई कुछ और ही । वैदिकधर्म में भी सनातन धर्म का ईश्वर और है, आर्यसमाज का ईश्वर और है । सनातम धर्म का ईश्वर अवतार धारण कर सकता है परन्तु आर्य समाज का ईश्वर अवतार धारण नहीं कर सकता। अब कहिए, कौन आस्तिक है, तो जैन-धर्म भी अपनी परिभाषा के अनुसार परमात्मा को मानता है, अतः वह भी आस्तिक है ।
कुछ विद्वान यह भी कहते हैं कि जैन लोग परमात्मा को जगत का कर्ता नहीं मानते, इसलिए नास्तिक हैं। यह तर्क भी ऊपर के समान व्यर्थ है। जब परमात्मा वीतराग है, रागद्वेष से रहित है, तब वह जगत् का क्यों निर्माण करेगा ? और फिर उस जगत् का, जो आधि-व्याधि के भयंकर दुःखों से संत्रस्त है। इस प्रकार के जगत् की रचना में वीतराग-भाव कैसे सुरक्षित रह सकता है ? और बिना शरीर के निर्माण होगा भी कैसे ? अस्तु परमात्मा में जगत्- कर्त्तव्य धर्म है ही नहीं ।
किसी वस्तु का अस्तित्व होने पर ही तो उसे माना जाए ! मनुष्य के पंख नहीं हैं। कल यदि कोई यह कहे कि मनुष्य के पंख होना मानो, नहीं तो तुम नास्तिक हो । यह भी अच्छी बला है। इस प्रकार तो सत्य का गला ही घोंट दिया जाएगा।
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